ससुराल
ससुराल
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बहु क्या कर रही हो यूं कबतक सोती रहोगी …चाय क्या तेरी माँ आकर बनायेगी….सासुजी के इस उलाहना भरे स्वर को सुनते हीं अनायास माँ की याद आ गई…… अभी तो सुबह के पांच हीं बजे हैं जब मैं आठ बजे तक सोई रहती थी तब भी माँ बालों में उंगलियां फिराती हुई बड़े हीं प्यार से पूछती क्या हुआ बेटू (बेटी) तबीयत तो ठीक है न..? चल उठ जा नहा धो कर कुछ खाना खा लो फिर सो जाना
मैं तुरंत ही उठी तैयार हो रसोई में समा गई चाय तैयार कर सबको पिलाया और जुट गई दिन के भोजन की तैयारी में ……सब्जी काट हीं रही थी तभी एक बार फिर से सास का कड़क स्वर सुन कर ठिठक गई… आज खाने में क्या बना रही हो…..पुनः माँ स्मृति पटल पर उभर आई जो बड़े ही स्नेह से पूछ रही थी आज क्या खायेगी बेटू…तेरे लिए क्या बनाऊं…. कितना अंतर था मायका और ससुराल में।
भोजन तैयार करते वक्त माँ और पापा की आज बड़ी याद आ रही थी , ना जाने कैसे हाथ जल गया , दीपक का टिफिन तैयार कर उन्हें दिया ।
बड़े सलीके से भोजन परोसा और ससुर बोले …..तेरे घर में क्या तेल का कुआँ था बहु। तब वो दिन याद आया, जब बिना नमक की सब्जी खाकर भी पापा कहते थे ……आज की सब्जी तो बहुत बढ़िया बनी हैं।
अब तो हर घड़ी दीपक का इंतजार होता हैं। दरवाजे पर आँखों का डेरा जमा होता हैं। तभी वो आते ही बोले ………ये लो ये तुम्हारे लिये और आज का खाना बहुत ही अच्छा बना था मैं तो खाना खाते वक्त लगातार उँगलियाँ चाटता रहा।
ये सुनते ही आँखे बंद करके एक लम्बी सी साँस आयी जो अपने साथ चेहरे पर मुस्कान लायी……… तभी आवाज आयी यें तुम्हारी हाथों को क्या हुआ दिखाओं मुझे , फिर क्या था जख्मों पर मरहम लग गया और आँखे भर आयीं।
मायके और ससुराल के बीच शायद यहीं वो एहसास है जो एक औंरत के दिन भर की मायके की याद को भुला देती हैं। हर औरत के लिए उसका अपना दिपक।।।
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पं.संजीव शुक्ल “संजीव”
मुसहरवा (मंशानगर)
पश्चिमी चम्पारण
बिहार…८४५४५५