सरकारी दफ्तर में भाग (6)
आविद आकर संजीव की बगल वाली सीट पर बैठ गया। आविद जैसे ही बैठा, तभी आॅटो वाले ने पूछा, ‘‘आज प्रताप भवन में क्या है। सुबह से बहुत लोग आये। क्या कोई परीक्षा है लेकिन परीक्षायें तो स्कूलों में होती है ? तभी आविद ने जबाव दिया आज एक इन्टरव्यू होना है। उसकी परीक्षा काफी समय पहले ही हो चुकी है। आविद के इतना कहने पर संजीव समझ गया, कि वो भी आज उसी इन्टरव्यू के लिए आया है, जिसके लिए वह आया है।
संजीव ने उससे पूछा, ‘‘क्या आप भी जिला कोषागार विभाग में सहायक लेखाकार पद के इन्टरव्यू के लिए आये हो।
आविद, ‘‘जी हाँ।
आविद साक्षात्कार को लेकर बहुत खुश था, और बार-बार पूरे विश्वास के साथ यह कह रहा था, मैं तो सिर्फ अपना चेहरा दिखाने आया हूँ। मेरा चयन तो हो चुका है। आविद की बात सुनकर संजीव को बड़ी हँसी आ रही थी, उसने मन मे सोचा अभी तो साक्षात्कार हुआ तक नहीं और इन साहब का सलेक्शन भी हो गया, जैसे वहाँ का निर्णायक मण्डल माला लेकर इन्हीं का स्वागत करने के लिये बैठा हो, कि आइए साहब कृपया ज्वाइन कीजिए। लेकिन संजीव को वास्तविक संसार की जानकारी नहीं थी। क्योकि संजीव जिस गाँव में रहता था, उस गाँव के लोगों के स्वभाव से अपनत्व की खूशबू आती आती थी, जिनकी वाणियो में मोहब्बत का तराना गुनगुनाता था। वहाँ के लोग दूसरों की उन्नति के लिए दुआ करते थे। उसकी माँ ने उसे जिस माहौल में रखा था वहाँ लोग एक-दूसरे के सुख-दुख के साथी बनते थे। दूसरों के दुख में दुखी होना और दूसरों सुख में सुखी रहना वहाँ की परम्परा थी। यही वजह थी, कि संजीव बड़े-बड़े शहरों के छल-कपट से बिल्कुल अंजान था। यही वजह थी कि संजीव आविद की बात सुनकर मुस्करा रहा था। लेकिल संजीव नहीं जानता था कि आज वह जीवन के उस सच का सामना करने वाला है जहाँ सच्चाई का वहिष्कार करके झूठ, अन्याय और पाखण्ड का मुकुट अपने सिर पर लगाना ही संसार के लोगों की शान थी।
कुछ देर बाद संजीव प्रताप भवन के सामने था। संजीव आॅटो वाले को पैसे देकर जैसे ही प्रताप भवन की ओर मुड़ा। उसके सामने वह इमारत थी, जो अब प्रताप भवन के नाम से प्रसिद्ध थी। और उस इमारत के ही भीतर था वह दफ्तर। जहाँ होना था संजीव का साक्षात्कार। संजीव उस इमारत को देखकर दंग रह गया। क्योंकि उसकी आँखों के सामने कार्यालय के रूप में सरकारी मुलाजिमों की रोजी-रोटी के जरिया बनी सरकारी कामकाजों की फाइलों से दुल्हन सी सजी वह इमारत थी, जो कभी हुआ करता था उसके दादा जी का राजमहल। जहाँ का आस-पास का माहौल उसके दादा जी के इशारों पर बनता, बिगड़ता और बदलता था। संजीव आॅटो से उतरकर कुछ देर तक उस इमारत को शान्त खड़ा बस देखता रहा, और उसकी आँखों के सामने उसकी माँ सीतादेवी द्वारा बताया गया उसका अतीत की पूरा का पूरा ऐसे निकल गया जैसे किसी ने अभी-अभी उसके जीवन की उसे पूरी फिल्म दिखा दी हो। संजीव पहली बार उस दहलीज पर आया था जहाँ आने पर संजीव का ढ़ोल, नगाड़ो और फूल बरसाते हुये इस उद्घोषणा के साथ उसका स्वागत होना था जहाँ राजमहल के मुख्य द्वारा पर खड़े दरवान ये कह रहे हो, ‘‘सावधान ! श्यामतगढ़ के छोटे राजकुमार कुंवर संजीव राजमहल में पधार रहें हैं।’’ संजीव प्रताप भवन के मुख्य द्वार पर खड़ा अपने अतीत की कड़ियों को वर्तमान की परिस्थति के हालात से जोड़ ही रहा था। कि पीछे से आविद के स्पर्श ने संजीव को उसके अतीत से बाहर खींचकर फिर उसे वर्तमान के उस सत्य की दहलीज पर खड़ा कर दिया। जहाँ संजीव को इस बात का फिर इल्म हुआ कि अब उसका इस महल से कोई सम्बन्ध नही है। क्योंकि वह इमारत अब उसके दादा की रियासत नहीं, बल्कि तबदील हो चुकी थी एक सरकारी दफ्तर में।
आविद बोला, ‘‘क्या हुआ भाई चलो।’’
अपने अतीत से वर्तमान में आने के बाद आविद से बोला, ‘‘कुछ नहीं भाई चलो।’’
संजीव आविद के साथ उस दफ्तर की ओर बढ़ा और मन ही मन कुछ उधेड़ बिन कर रहा था कि आज पहली बार अपने दादा जी के महल में आया है, वो इस बात का जश्न मनाये या गम। क्योकि अपने ही अस्तित्व की दहलीज पर आया है संजीव एक याचक बनकर, जहाँ पर होना है उसके अग्रिम जीवन का वो फैसला जिसपर निर्भर है उसके आने वाली जिन्दगी का फँसाना।
आविद संजीव से कुछ आगे निकल गया, फिर कुछ पलों में आविद ने संजीव को आवाज दी, ‘‘ओ भाईजान आपको इन्टरव्यू देना है कि नही। कहाँ खोये हो जब से आये हो इस बिलिडंग पर तुम्हारी नजर है क्या इस बिल्डिंग को खरीदने का इरादा है बाॅस। 10ः30 बज गये है इन्टरव्यू शुरू हो गये अब चलो जल्दी। आविद की एक बात ने संजीव के हृदय को अन्दर से कचोट सा दिया था, लेकिन वह अपने मन को, और भावनाओं को काबू करते हुये कुछ झूठी मुस्कान के साथ बोला, ‘‘नहीं भाई ऐसा नही है। वो मै गाँव में रहता हूँ न। ऐसी इमारत पहले कभी देखी नही न, तो बस।
संजीव मन ही मन कह रहा था, अब इसे क्या बताऊँ इस इमारत से उसका क्या नाता है।
कहानी अभी बाकी है…………………………….
मिलते हैं कहानी के अगले भाग में