सरकारी दफ्तर में भाग (1)
जून की धधकती गर्मी के दिन थे, जून की गर्मी के उन दिनों में गर्मी का आलम कुछ यूँ था कि सूर्य की तेज किरणें अपनी तपिश से सभी लोगों को जला डाल रही थी। संजीव अपने घर के बरामदे में ही बैठा था, उसके घर के ठीक सामने एक बहुृत पुराना और घना पीपल का पेड़ था, जिसके चारों ओर सीमेन्ट का एक चबूतरा बना हुआ था। संजीव अक्सर ही अपने घर के बाहर वाले बरामदे में मुख्य दरबाजे पर बैठा करता था। अपने घर के मुख्य दरबाजे पर बैठने की दो वजह थीं, पहली तो यह कि वहां बैठने से उसके घर के सामने का पूरा नजारा उसे देखने को मिल जाता था और दूसरी वजह यह भी थी कि गर्मी के उस मौसम में भी जहां गर्मी से लोगों का बुरा हाल होता था वहीं अपने घर के बरामदे में घर के दरवाजे पर बैठकर संजीव को उस गर्मी में भी सुकून मिल जाता था, क्योंकि उसके घर के सामने लगे पीपल के पेड़ होने के कारण पीपल के ताजी, ठण्डी और सुकून भरी हवा सीधे उसके घर में आती थी। इससे संजीव को गर्मी में भी गर्मी का बिल्कुल एहसास नही होता था।
उस दिन गर्मी ने अपने प्रकोप से पूरे वातावरण को बेहाल कर रखा था, सूर्य की तेज किरणों से चहुँओर त्राहि-त्राहि सी मची थी, लेकिन संजीव हमेशा की तरह बरामदे में ही बैठा हुआ था, जून की धधकती गर्मी में भी उसे उस आनन्द की अनुभूति हो रही थी जो शायद किसी ए.सी. में बैठकर नही होती। संजीव के घर के सामने लगे पीपल के पेड़ के चबूतरे के चारों ओर गांव के बच्चे, बूढ़ें, जवान सभी बैठे उस शीतल हवा का आनन्द ले रहे थे। जहां एक ओर तो बूढ़े लोग बैठे ताश खेल रहे थे, वहीं कुछ व्यापारी लोग जो गांव-गांव फेरी करके अपनी जीविका चलाते हैं उनके भी आने का सिलसिला जारी था, कोई कपडे बेचने आता तो कोई बिसात खाना लेकर आता। इस तरह व्यापरियों का भी वहाँ आना जाना लगा रहता। व्यापारी लोग वहां आते और कुछ देर रूककर पीपल की ठण्डी हवा में बैठते और कुछ देर ठहर कर फिर चल देते, वहीं चैतरे के एक कोने में बैठे कुछ बच्चे अपने-अपने खेल खेल रहे थे, कुछ बच्चे पिचगुट्टे खेल रहे थे, तो कुछ बच्चियों ने उस चैतरे के एक कोने के थोड़े से हिस्से में से भी कुछ हिस्से पर अपना कब्जा कर रखा था, और उस छोटे से हिस्से में भी कभी अपने गुड्डे-गुड़िया की नकली शादी करवाती तो कभी उनके लिए अपने छोटे से चूल्हे पर चाय बनाती, कभी नकली चूल्हे पर खाना बनाकर अपने गुड्डे-गुड़िया को खाना खिलाने की कोशिश में लगी हुयी थी।
संजीव इस पूरे नजारे को अपने घर के बरामदे में बैठा-2 देख रहा था, और इस पूरे नजारे को देखने के साथ-2 पीपल के पेड़ की लग रही ठण्डी हवा में संजीव बहुत सुकून महसूस कर रहा था। इस पूरे नजारे को देखते-2 पता नहीं कब संजीव की आंख लग गयी पता नही चला। कुछ देर बाद अचानक एक आवाज से संजीव की आंख खुली, उसने आंख खोलकर सामने देखा तो एक डाकिया अपनी साईकिल की घण्टी बजा रहा था, और पीपल के चबूतरे पर बैठे लोगों से किसी का पता पूँछ रहा था, संजीव ने सोचा शायद किसी का पता पूँछ रहा होगा, और ये सब नजारा देखकर फिर सो गया। थोड़ी देर बाद संजीव के घर की कुण्डी खटकी, कुण्डी के खटकने से अचानक संजीव की आँखे खुली, तो उसके सामने वहीं डाकिया खड़ा था जिसकी घंटी की आवाज सुनकर थोड़ी देर पहले संजीव की आंख खुल गयी थी। संजीव उठकर उस डाकियेे के पास गया तो डाकिये ने संजीव से पूछा, ‘‘संजीव आपका नाम है।’’
संजीव, ‘‘जी हाँ मेरा नाम संजीव है।’’
डाकिया के हाथों में एक लिफाफा था। जिस पर संजीव का नाम लिखा हुआ था, डाकिये ने संजीव से कहा, ‘‘आपका लेटर आया है।’’
डाकिये ने संजीव का लेटर उसे सौंपा और वहां से चला गया। संजीव ने जब उस लेटर को खोला तो वह एक बुलावा पत्र था, जो एक इन्टरव्यू के लिए आया था, संजीव ने कुछ माह पहले जिला कोषागार विभाग में सहायक लेखाकार पद के लिए मांगे गये आवेदनों में आवेदन किया था, जिसकी उसने अप्रैल माह में परीक्षा दी थी, और वह उसमें उत्तीर्ण हो गया था, इसलिये साक्षात्कार के लिए उसका बुलावा पत्र आया था। संजीव उस बुलावा पत्र को देखकर बहुत खुश हो गया, और वह जल्दी से दौड़कर अपनी मां के पास गया और अपनी माँ के पैर छुये। संजीव की माँ सीता देवी अन्दर कमरे में बैठी कुछ काम कर रही थी।
संजीव की माँ ने उसे पूछा, ‘‘ क्या हुआ संजीव ! बहुत खुश है तू आज’’
संजीव, ‘‘ माँ-माँ मेरा इन्टरव्यू के लिए सलेक्शन हो गया माँ ! अब देखना तेरे सारे दुःख दूर हो जायेंगे।’’
संजीव की माँ ने उसे आशीर्वाद दिया कि जा सफल होकर आना बेटा।
कहानी अभी बाकी है…………………………….
मिलते हैं कहानी के अगले भाग में