सम्वेदना
सम्वेदना
मर रही है मानसिक संवेदना,जा खड़ी है जंगलों के बीच में।
रो रही इंसानियत मायूस हो,दिल दरिंदा हँस रहा है कीच में।
क्रूरता बाजर में है नाचती,सत्य का बाजार फीका लग रहा।
मूल्य का अपमान चारोंओर है,झूठ का व्यापार खुल्लम चल रहा।
खून दे कर पेट भरता एक है,खून पी कर मस्त इक इंसान है।
बेबसी का लाभ लेता एक है,क्या कहें इंसान या शैतान है?
झुग्गियों का हाल क्या हो पूछते,शून्य दिल की चाल का परिणाम है।
पूजते हैं लोग केवल अर्थ को,संपदा ही जिंदगी का नाम है।
लोक मूल्यों को कुचलते लोग हैं,भौतिकी के गेह में गुलजार है।
पाप में ही जिंदगी की कल्पना,आत्मचिंतन का नहीं सत्कार है।
खो गयी है पावनी सद्भावना,ऐंठता नित दुष्ट भ्रष्टाचार है।
लालिमा माधुर्य रस से हीन है,कालिमा का वेग अपरम्पार है।
सौर ऊर्जा में जहर की पोटली,वेदना के द्वार पर व्यभिचार है।
जेबकतरे घूमते चारोंतरफ,मौन हो कर बोलते ये प्यार है।
बढ़ गयी विषबेलियाँ अब जंगलों में,आम का होता कहाँ इजहार है?
दूषितो की भीड़ में मन सुप्त है,लुप्त होता आज मौलिक द्वार है।
साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।