सम्राट कृष्णदेव राय
‘सम्राट् कृष्णदेव राय’ भारत के प्रतापी सम्राटों में एक थे, जिनके विजयनगर साम्राज्य की ख्याति विदेशों तक फैली हुई थी। माघ शुल्क चतुर्दशी संवत् 1566 विक्रमी को विजयनगर साम्राज्य के सम्राट् कृष्णदेव राय का राज्याभिषेक भारत के इतिहास की एक अद्भुत घटना थी। इस घटना को भारत में स्वर्णिम युग माना जाता है, क्योंकि उन्होंने भारत में बर्बर मुगल सुल्तानों की विस्तारवादी योजना को धूल चटाकर आदर्श हिंदू साम्राज्य की स्थापना की थी, जो आगे चलकर छत्रपति शिवाजी महाराज के हिंदवी स्वराज्य की प्रेरणास्रोत बनी। अद्भुत शौर्य और पराक्रम के प्रतीक सम्राट कृष्णदेव राय का मूल्यांकन करते हुए इतिहासकारों ने लिखा है कि इनके अंदर हिंदू जीवन आदर्शों के साथ ही साथ भारतीय सम्राटों के सद्गुणों का समन्वय था। इनके राज्य में विक्रमादित्य जैसी न्याय व्यवस्था थी, चंद्रगुप्त मौर्य और सम्राट अशोक जैसी सुदृढ़ शासन व्यवस्था तथा शृंगेरी मठ के शंकराचार्य महान् संत विद्यारण्य स्वामी की आकांक्षाओं एवं आचार्य चाणक्य के नीतिगत तत्त्वों का समावेश था। इसलिए उनके संबंध में ‘बाबरनामा’ में लिखा था कि ‘काफिरों के राज्य विस्तार और सेना की ताकत की दृष्टि से विजयनगर साम्राज्य ही सबसे विशाल है।’ भारत में कृष्णदेव राय और राणा साँगा ही दो बड़े हिंदू राजा थे। वैसे तो सन् 1510 ई. में सम्राट् कृष्णदेव राय का राज्याभिषेक विजयनगर साम्राज्य के लिए एक नए जीवन का प्रारंभ था, किंतु इसका उद्भव तो सन् 1336 ई. में ही हुआ था। कहते हैं कि विजयनगर साम्राज्य के प्रथम शासक हरिहर तथा उनके भाई बुक्काराय भगवान् श्रीकृष्ण के भक्त थे और उन्हीं की प्रेरणा से अधर्म का विनाश तथा धर्म की स्थापना करना चाहते थे। हरिहर एक बार शिकार के लिए तुंगभद्रा नदी के वन क्षेत्र में गए, उनके साथ के शिकारी कुत्तों ने एक हिरण को दौड़ाया, किंतु हिरण ने डरकर भागने के बजाय शिकारी कुत्तों को ही पलटकर दौड़ा लिया। यह घटना बहुत ही विचित्र थी। घटना के बाद अचानक एक दिन हरिहर राय की भेंट महान् संत स्वामी विद्यारण्य से हुई और उन्होंने पूरा वृत्तांत स्वामीजी को सुनाया। इस पर संत ने कहा कि यह भूमि शत्रु द्वारा अविजित और सर्वाधिक शक्तिशाली होगी। संत विद्यारण्य ने उस भूमि को बसाने और स्वयं भी वहीं रहने का निर्णय किया। यही स्थान विकसित होकर ‘विजयनगर’ कहा गया। वास्तव में भारत के हिंदू राजाओं की आपसी कटुता, अलाउद्दीन खिलजी के विस्तारवादी अभियानों तथा मोहम्मद तुगलक द्वारा भारत की राजधानी देवगिरि में बनाने के फैसलों ने स्वामी विद्यारण्य के हिंदू हृदय को झकझोर दिया था, इसीलिए वे स्वयं एक शक्तिपीठ स्थापित करना चाहते थे। हरिहर राय के प्रयासों से विजयनगर राज्य बना। जिस प्रकार चंद्रगुप्त के प्रधानमंत्री आचार्य चाणक्य थे, उसी प्रकार विजयनगर साम्राज्य के महामंत्री संत विद्यारण्य स्वामी और प्रथम शासक बने हरिहर राय। धीरे-धीरे हरिहर राय प्रथम का शासन कृष्णानदी के दक्षिण में भारत की अंतिम सीमा तक फैल गया। शासक बदलते गए और हरिहर प्रथम के बाद बुक्काराय, हरिहर द्वितीय, देवराय प्रथम, देवराय द्वितीय, मल्लिकार्जुन और विरुपाक्ष के हाथों में शासन की बागडोर आई, किंतु दिल्ली सल्तनत से अलग होकर स्थापित बहमनी राज्य के मुगल शासकों से लगातार सीमा विस्तार हेतु संघर्ष होता रहा। जिसमें विजयनगर साम्राज्य की सीमाएँ संकुचित हो गई।
1485 ई. में कर्नाटक व तेलंगाना के सामंत सलुवा नरसिंहा ने बहमनी सुल्तानों को भी पराजित करके विजयनगर साम्राज्य को नरसिंहा साम्राज्य में बदल दिया। इसके बाद ऐसा लगा कि अब विजयनगर साम्राज्य इतिहास में समाहित हो जाएगा, परंतु 1510 ई. में इसका पुनः अभ्युदय प्रारंभ हुआ और 20 वर्ष की अल्पआयु में कृष्णदेव राय का राज्याभिषेक हुआ। इस राज्याभिषेक के समय पुर्तगालियों ने गोवा में अपना व्यापार सुरक्षित रखने के लिए बीजापुर के सुल्तान आदिलशाह (यूसुफ आदिलशाह) पर आक्रमण करके गोवा पर विजय प्राप्त कर ली, किंतु सम्राट् कृष्णदेव राय ने अपनी कूटनीतिक चालों से मुगलिया सल्तनत के प्रतिनिधि आदिलशाह और पुर्तगालियों के मध्य युद्ध की आग को हवा देने का काम करने का सतत प्रयास किया, वैसे पुर्तगाली गवर्नर सम्राट कृष्णदेव राय को दक्षिण का राजा मानता था। अपने राज्याभिषेक के साथ ही सम्राट कृष्णदेव राय ने अपना विजय अभियान भी प्रारंभ कर दिया। सन् 1516 ई. तक उड़ीसा के कई किलों पर विजय प्राप्त कर ली और उड़ीसा के राजा की पुत्री से विवाह करके मित्रता भी स्थापित की। इसी के साथ ही सम्राट कृष्णदेव राय ने पूर्वी प्रदेशों पर अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया। गोलकुंडा के सुल्तान कुली का मुकाबला करने के लिए वहाँ के सभी हिंदू राजाओं को एकत्र किया, क्योंकि सुल्तान कुली ने दक्षिण के छोटे-छोटे राज्यों पर आधिपत्य कर रखा था। इतिहासकार बताते हैं कि यह संघर्ष लगभग ढाई दशक तक चला। सन् 1534 ई. में सुल्तान कुली बुरी तरह से घायल हो गया तथा चेचक के प्रभाव से उसका शरीर भी विकृत हो गया। राज्याभिषेक वर्ष के बाद रायचूर का संघर्ष सम्राट कृष्णदेव राय के जीवन का सबसे महत्त्वपूर्ण संघर्ष था। रायचूर एक सुरक्षित नगर था, जिसमें एक सुदृढ़ किला भी था, इसको जीतने की तीव्र इच्छा विजयनगर के पूर्व शासक नरसिंहा के मन में थी, क्योंकि यह किला यूसुफ आदिलशाह ने नरसिंहा के पूर्व शासकों से छीन लिया था। वस्तुतः सम्राट कृष्णदेव राय की दृष्टि रायचूर के किले के साथ-साथ मुगल साम्राज्य को उखाड़ फेंकने पर भी थी ।
सम्राट् कृष्णदेव राय घोड़ों के बहुत शौकीन थे। उन्होंने सीडेमरकर नामक एक मुगल को चालीस हजार सिक्के देकर गोवा के पोंड़ा में मुगलों से घोड़े खरीदने के लिए भेजा, किंतु उस मुगल ने विश्वासघात किया और पोंड़ा के मुगलों के साथ सिक्के और घोड़े लेकर आदिलशाह के राज्यक्षेत्र में भाग गया। दोनों राज्यों की चालीस साल पुरानी संधि के आधार पर दूसरे राज्य के अपराधी को संरक्षण देना संधि का उल्लंघन था, अतः सम्राट् कृष्णदेव राय ने आदिलशाह को पत्र लिखकर बताया कि सीडेमरकर को धन सहित तुरंत विजयनगर साम्राज्य को सौंप दिया जाए, अन्यथा परिणाम भयानक होगा। आदिलशाह ने अहंकार के कारण उस मुगल अपराधी को विजयनगर भेजने की बजाय सम्राट को पत्र लिखा कि काजी की सलाह के अनुसार सीडेमरकर पैगंबर के वेश का प्रतिनिधि और कानून का ज्ञाता है, अतः उसे विजयनगर को नहीं सौंपा जा सकता। इस हठवादिता के विरुद्ध सम्राट कृष्णदेव राय ने 7,36,000 सैनिकों की विशाल सेना के साथ रायचूर पर धावा बोल दिया। कूटनीतिक तरीके से बरार, बीदर और गोलकुंडा के सुल्तानों को उन्होंने आदिलशाह के पक्ष में न बोलने के लिए भी तैयार कर लिया। इन सुल्तानों को पता था कि यदि हमने आदिलशाह की मदद की तो सम्राट् कृष्णदेव राय के कोप से हमें भी जूझना पड़ेगा। परिणामतः ये सभी आदिलशाह के सहयोग में नहीं खड़े हुए, जबकि सभी हिंदू राजाओं को उन्होंने कृष्णा नदी के तट पर एकजुट करके बीजापुर की आदिलीशाही सेना पर आक्रमण कर दिया। भयभीत होकर आदिलशाह युद्ध के मैदान से भाग गया तथा सम्राट कृष्णदेव राय की विजय हुई। सम्राट कृष्णदेव राय की इस विजय को दक्षिण भारत की महत्त्वपूर्ण विजय कहा गया, जिसके बहुत दूरगामी परिणाम सामने आए।
आदिलशाह की शक्ति और सम्मान को चकनाचूर करके बीजापुर के उस अहंकार को उन्होंने तोड़ दिया, जिसमें वह दक्षिण भारत का सुल्तान बनने का स्वप्न अपनी आँखों में सँजोए हुए था। दक्षिण भारत के अन्य मुगल शासकों के दिल दहल गए और वे अपने जीवित रहने के लिए राह तलाशने लगे। पुर्तगाली इतना भयभीत हो गए कि उन्हें लगा कि उनका व्यापार हिंदुओं की सहायता के बिना संभव नहीं है। भारतीयों में आत्मगौरव और स्वाभिमान का प्रबल जन ज्वार खड़ा हो गया। सम्राट कृष्णदेव राय ने इस सफलता पर विजयनगर में शानदार उत्सव का आयोजन किया, जिसमें मुगल शासकों ने अपने दूत भेजे, जिनको सम्राट कृष्णदेव राय ने कड़ी फटकार लगाई। यहाँ तक कि आदिलशाह के दूत से उन्होंने कहा कि आदिलशाह स्वयं यहाँ आकर मेरे चरणों का चुंबन करे और अपनी भूमि तथा किले हमें समर्पित करे तब हम उसे क्षमा कर सकते हैं। वीरता के साथ-साथ विजयनगर का साम्राज्य शासन व्यवस्था के आधार पर विश्व में अतुलनीय था। सुंदर नगर रचना और सभी को शांतिपूर्वक जीवनयापन करने की सुविधा यहाँ की विशिष्टता में चार चाँद लगाती थी। जाति और पूजा पद्वति के आधार पर वहाँ किसी प्रकार का भेदभाव नहीं था। यहाँ पर राजा को धर्म, गौ एवं प्रजा का पालक माना जाता था। सम्राट कृष्णदेव राय की मान्यता थी कि शत्रुओं को शक्ति के आधार पर कुचल देना चाहिए और ऐसा ही उन्होंने व्यवहार में भी दिखाया। विजयनगर साम्राज्य के सद्गुणों की स्पष्ट झलक उनके दरबार के प्रसिद्ध विद्वान् तेनाली राम के अनेक दृष्टांतों से मिलती है, जो आज भी भारत में बच्चों के अंदर नीति और सद्गुणों के विकास के लिए सुनाए जाते हैं। सम्राट कृष्णदेव राय के शासन में कौटिल्य के अर्थशास्त्र को आर्थिक विकास का आधार माना गया था, जिसके फलस्वरूप वहाँ की कृषि ही जनता की आय का मुख्य साधन बन गई थी। इनकी न्यायप्रियता पूरे भारत में प्रसिद्ध थी। लगभग 10 लाख की सैन्य शक्ति, जिसमें 32 हजार घुड़सवार तथा एक छोटा तोपखाना और हाथी भी थे, वहाँ की सैनिक सुदृढ़ता को प्रकट करता था। विजय नगर साम्राज्य अपनी आदर्श हिंदू जीवन-शैली के लिए विश्वविख्यात था। जहाँ के महाराजा कृष्णदेव राय वैष्णव होने के बावजूद भी जैन, बौद्ध, शैव, लिंगायत जैसे भारतीय पंथों को ही नहीं ईसाई, यहूदी और मुसलमानों जैसे अभारतीय पंथों को भी पूरी धार्मिक स्वतंत्रता प्रदान करते थे। ऐसे सर्वव्यापी दृष्टिकोण का परिणाम था कि ई. 1336 में स्थापित विजयनगर साम्राज्य हिंदू और मुसलमान या ईसाइयों के पारस्परिक सौहार्द तथा समास और समन्वित हिंदू जीवन-शैली का परिचायक बना, जबकि इससे दस वर्ष बाद, अर्थात् 1347 ई. में स्थापित बहमनी राज्य हिंदुओं के प्रति कटुता, विद्वेष और बर्बरता का प्रतीक बना।
15वीं शताब्दी में विजय नगर साम्राज्य का वर्णन करते हुए इटली के यात्री निकोलो कोंटी ने लिखा था कि यह राज्य भारत का सबसे शक्तिशाली राज्य है, इसके राजकोष में पिघला हुआ सोना गढ़ों में भर दिया जाता है तथा देश की सभी अमीर गरीब जातियों के लोग स्वर्ण आभूषण पहनते हैं। सोलहवीं शताब्दी में पुर्तगाली यात्री पेड़ज ने यहाँ की समृद्धि का वर्णन करते हुए लिखा था कि यहाँ के राजा के पास असंख्य सैनिकों की शक्ति, प्रचुर मात्रा में हीरे, जवाहरात, अन्न के भंडार तथा व्यापारिक क्षमता के साथ-साथ अतुलनीय कोष भी हैं। एक और पुर्तगाली यात्री न्यूनिज ने भी इसी बात की पुष्टि करते हुए लिखा है कि विजयनगर में विश्व की सर्वाधिक प्रसिद्ध हीरे की खानें, यहाँ की समृद्धि को प्रकट करती हैं।
सैनिक और आर्थिक ताकत के अतिरिक्त सम्राट् कृष्णदेव राय उच्चकोटि के विद्वान् भी थे। संस्कृत, कन्नड़, तेलुगू तथा तमिल भाषाओं को प्रोत्साहन देने के साथ ही उन्होंने अपने साम्राज्य में कला और संस्कृति का पर्याप्त विकास किया। उन्होंने कृष्णा स्वामी, रामा स्वामी तथा विट्ठल स्वामी जैसे भव्य मंदिरों का निर्माण कराया तथा संत स्वामी विद्यारण्य की स्मृति में बने हम्पी मंदिर का विकास भी कराया। संत विद्यारण्य स्वामी साधारण संत नहीं थे। उन्होंने माँ भुवनेश्वरी देवी के श्री चरणों में बैठकर गहरी अनुभूति प्राप्त की थी तथा स्वामी भारतीकृष्ण तीर्थजी महाराज के शिष्य के रूप में शृंगेरी मठ के शंकराचार्य के पद को सुशोभित किया था। विजयनगर साम्राज्य के इस कुशल योजनाकार ने 118 वर्ष की आयु में जब अपना जीवन त्याग दिया तो कर्नाटक की जनता ने पम्पा क्षेत्र (हम्पी) के विरुपाक्ष मंदिर में इस महान् तपस्वी की भव्य प्रतिमा की स्थापना की, जो आज भी भक्तों के लिए प्रेरणास्रोत है। विजयनगर साम्राज्य को विश्व में आदर्श हिंदू राज्य के रूप में मानने के पीछे सम्राट कृष्णदेव राय का प्रेरणादायी व्यक्तित्व अपना महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है।