मेरी पुस्तक ‘अर्चना की कुण्डलिया भाग-2’ पुस्तक की समीक्षा
विमोचन-समारोह में, मेरे (डॉ० अर्चना गुप्ता )के कुण्डलियाँ संग्रह – ‘अर्चना की कुण्डलियाँ’ (भाग २) के सम्बंध में मुरादाबाद के प्रसिद्ध रचनाकार राजीव प्रखर जी द्वारा पढ़ा गया आलेख – ??
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आम जीवन की सशक्त एवं सार्थक अभिव्यक्ति –
“अर्चना की कुण्डलियाँ (भाग २)”
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काव्य की अनेक विधाएं होती हैं। किसी विधा विशेष पर आधारित उल्लेखनीय एवं मनमोहक कृतियों का जन्म होना, साहित्य-जगत की परम्परा रही है। महानगर मुरादाबाद की लोकप्रिय कवयित्री डॉ० अर्चना गुप्ता जी की सशक्त लेखनी से निकला कुण्डलियाँ-संग्रह – “अर्चना की कुंडलियाँ (भाग २) ऐसी ही कृति कही जा सकती है। कुल सात खण्डों – ‘प्रार्थना’, ‘परिवार’, ‘पर्यावरण’, ‘जीवन’, ‘देश’, ‘व्यंग्य’ एवं ‘व्यक्तित्व’ में समाहित १५२ कुण्डलियों से सुसज्जित इस कुण्डलियाँ-संग्रह की प्रत्येक कुंडली का एक सुंदर रचना के रूप में पाठकों के सम्मुख आना, कवयित्री की उत्कृष्ट लेखन-क्षमता को प्रमाणित करता है।
रचनाओं की सार्थकता बनाये रखते हुए एक भाव से दूसरे भाव में पहुँचना एवं उनकी सटीक शाब्दिक अभिव्यक्ति करना, किसी भी रचनाकार के लिये एक चुनौती होती है परन्तु, डॉ० अर्चना गुप्ता जी की सुयोग्य एवं प्रवाहमय लेखनी इस चुनौती को न केवल स्वीकार करती है अपितु, भावपूर्ण तथा सटीक कुण्डलियों के माध्यम से सोये हुए समाज को जागृत करने के सफल प्रयास में भी रत दिखायी देती है। जहाँ एक ओर उसमें अच्छाईयों के प्रति विद्यमान कोमलता के दर्शन होते हैं तो दूसरी ओर डगमगाते व बिखरते अथवा यों कहें कि रसातल में जाते सामाजिक मूल्यों को बचाने का सार्थक प्रयास भी दृष्टिगोचर होता है।
इस महत्वपूर्ण कुण्डलियाँ-संग्रह की वैसे तो प्रत्येक कुण्डली सशक्त एवं उद्देश्यपूर्ण बन पड़ी है फिर भी, कुछ विशेष कुण्डलियों का यहाँ उदाहरणस्वरूप उल्लेख करने से मैं स्वयं को रोक नहीं पा रहा हूँ।
कृति का प्रथम खण्ड ‘प्रार्थना’, ज्ञान की देवी माँ शारदे को समर्पित है जिसमें उनका भावपूर्ण स्मरण करते हुए कवयित्री की एक अभिव्यक्ति निम्न पंक्तियों के रूप में देखें –
“लाई हूँ माँ शारदे, मैं भावों के हार।
मेरे मन की वंदना, करना तुम स्वीकार।।
करना तुम स्वीकार, ज्ञान से झोली भरना।
अवगुण सारे मात, क्षमा तुम मेरे करना।।
कहे ‘अर्चना’ मात, तुम्हारे दर आई हूँ।
श्रद्धा के कुछ फूल, चढ़ाने सँग लाई हूँ।।”
कुछ आगे चलने पर द्वितीय खण्ड ‘परिवार’ शीर्षक से मिलता है जिसमें भ्रूण-हत्या जैसे जघन्य अपराध के विरुद्ध, कवयित्री एक अन्य कुण्डली में कुछ इस प्रकार शंखनाद करती हैं –
“आओ रोपें पेड़ इक, हर बेटी के नाम।
फैला दें संसार में, हम मिल ये पैगाम।।
हम मिल ये पैगाम, बोझ मत इसको मानो।
एक घृणित अपराध, भ्रूण-हत्या है जानो।।
कहे ‘अर्चना’ बात, बेटियाँ सींचें आओ।
शिक्षा की दे खाद, इन्हें हम रोपें आओ।।”
इसी क्रम में अगला खण्ड ‘पर्यावरण’ शीर्षक से उपलब्ध होता है जिसमें कवयित्री प्रदूषित होते पर्यावरण को बचाने का आह्वान कुछ इस प्रकार करती हैं-
“लगता है भूकम्प से, डरा हुआ इंसान।
लेकिन क्यों कम्पित धरा, दिया न इस पर ध्यान।।
दिया न इस पर ध्यान, किया धरती का दोहन।
पूरा करने स्वार्थ, काटता रहता है वन।।
कहे ‘अर्चना’ बात, बहुत मनमानी करता।
घबराता इंसान, मगर जब झटका लगता।।”
कुण्डलियों की इस श्रृंखला में चौथा पड़ाव, ‘जीवन’ शीर्षक से अगले खण्ड के रूप में हमारे सामने आता है, जिसमें घटते पारिवारिक मूल्यों के प्रति कवयित्री की वेदना को एक कुण्डली कुछ इस प्रकार साकार करती है –
“रिश्ते कच्चे रह गये, बस पैसे की भूख।
आपस के अब प्रेम की, बेल गई है सूख।।
बेल गई है सूख, सभी अनजाने से हैं।
रहते तो हैं साथ, मगर बेगाने से हैं।।
कहे ‘अर्चना’ आज, समय के हाथों पिसते।
दिल को देते दर्द, बहुत ये कच्चे रिश्ते।।”
कुण्डलियों की यह यात्रा आगे बढ़ती हुई पाँचवें खण्ड ‘देश’ पर पहुँचती है जिसके अन्तर्गत, देश में गहरे पैठ चुके भ्रष्टाचार व धूर्तता को कवयित्री कुछ इस प्रकार ललकारती हैं –
“बनकर वे बगुला भगत, बोलें झूठ सफेद।
नेताओं को पर नहीं, होता बिल्कुल खेद।
होता बिल्कुल खेद, चुनावी हथकंडे है।
जब भी छिड़े चुनाव, नये इनके फंडे हैं।।
कहे ‘अर्चना’ बात, जिन्होंने लूटा जमकर।
खड़े जोड़ कर हाथ, आज वो बगुला बनकर।।”
ऐसी धूर्तता एवं अन्य विसंगतियों को कवयित्री द्वारा ललकारने का यह क्रम, ‘व्यंग्य’ शीर्षक वाले खण्ड ६ में भी जारी रहता है।
कृति का सातवाँ एवं अन्तिम खण्ड, ‘व्यक्तित्व’ शीर्षक से पाठकों के सम्मुख आता है जो अन्य खण्डों से अलग हटकर है। देश के लिये तन-मन-धन से बलि हो जाने वाले महान व्यक्तित्वों को समर्पित इस खण्ड की प्रत्येक कुण्डली निश्चित ही नेत्रों को नम करने की शक्ति से ओत-प्रोत है। एक उदाहरण देखें –
“हँसते-हँसते जान भी, अपनी की कुर्बान।
राजगुरु सुखदेव भगत, सब थे वीर महान।।
सब थे वीर महान, देश था उनको प्यारा।
जिस दिन हुए शहीद, रो पड़ा था जग सारा।
कहे ‘अर्चना’ बात, नमन हम उनको करते।
फाँसी की स्वीकार, जिन्होंने हँसते-हँसते।।”
निष्कर्षत: यह कहा जा सकता है कि कवयित्री डॉ० अर्चना गुप्ता की उत्कृष्ट लेखनी एवं साहित्यपीडिया जैसे उत्तम प्रकाशन संस्थान की सुंदर जुगलबन्दी के चलते, आकर्षक पेपरबैक स्वरूप में एक ऐसी कृति साकार हुई है, जो साहित्य-जगत में अपना महत्वपूर्ण स्थान बनाने की सर्वथा योग्य है। इस पावन एवं सार्थक साहित्यिक अनुष्ठान के लिये कवयित्री एवं प्रकाशन संस्थान दोनों ही बारम्बार अभिनंदन के पात्र हैं।
माँ शारदे डॉ० अर्चना गुप्ता जी की लेखनी को निरंतर गतिमान रखते हुए नयी ऊँचाईयाँ प्रदान करें, इसी कामना के साथ –
– राजीव ‘प्रखर’
(मुरादाबाद)
दिनांक : २३/०२/२०२० (रविवार)
स्थान : स्वतंत्रता सेनानी भवन,
निकट एकता द्वार,
सिविल लाइन,
मुरादाबाद