समाज
बिंदिया दीदी ने उसकी चूड़ियाँ तोड़ डाली, काकी ने उसका सिंदूर पोछा और बाकि बचे मांग के सिंदूर को धो डाला वो अवाक थी हत्प्रभ्
जिसने कभी उसे पत्नी का दर्जा नहीं दिया ,मारता पिटता रहा,
आज उसके जाते ही उसकी उन्ही सखियों ने जिन्होंने कभी उसके घाव पर मरहम भी नही लगाए
आज उसके शरीर से उसके सुहागिन होने की एक एक निशानी को खुरच खुरच कर उतार रही थी उसकी आत्मा को खुरचते हुए और उतारने वाली सब की सब स्त्रियाँ
उसके भीतर चलते बवंडर से परे, उसकी आत्मा की चित्कार को अनसुना करती अंधी बहरी कर्म कांड में व्यस्त
अचानक उसने झटके से अपने को छुड़ाया और अट्टहास करते हुए बस दौड़ती चली गयी न कपड़ो का होश न अपनी अस्मिता का
क्यूंकि अब वो परे थी सोच समझ और बन्धनों से
विक्षिप्त
और अब समाज खुद मे वयस्त है वो स्त्रियां भी जो उसे मर्यादा लोक लाज का भय दिखाती थी आज उसके उघडे तन को ढ़ांपने की बजाए मुँह फेर के हंस्ती दिखती है
और वो विधवा अब किसी की मर्यादा नही बस उपेक्षित है