समाजवाद
आवाज़ आती है
समाजवाद आ रहा है
मिनिस्टरों के वायदे
इलेक्शन के समय के पूरे हो रहे हैं
(मगर उनके अपने ही अर्थों में )
हर तरफ तरक्की हो रही है
अमीरों की अमीरी
गरीबों की गरीबी
बढ़ रही है
गरीबी को मिटाया जा रहा है
गरीबों को मिटा कर
हो रही है ना तरक्की
अनाचार
पापाचार
दुराचार
अत्याचार
कु-विचार
व्याभिचार
भ्रष्टाचार
और ना जाने
कौन-कौन से आचार
पनप रहे हैं
यूं लगता है
मानो सतरंगा आचार तैयार हो रहा हो
(मगर इस में सदाचार का नाम नहीं )
बच्चों के भूख से तड़पते चेहरे
अपनी कोमलता खो चुके हैं
आज मैं देख रहा हूँ
भारत के लाल कली से फूल बनने से पहले ही
मुरझा रहे हैं
अरे भाई
तरक्की हो रही है
समय की कमी है
सब काम जल्दी-जल्दी
करने पड़ रहे हैं
तभी तो जिंदगी का सफ़र छोटा रह गया है
जवानी की क्या ज़रूरत है
लोग बचपन से सीधे ही
बुढापे में कदम रख रहे हैं
क्या यह तरक्की नहीं
काम नहीं तो दाम नहीं
(नो-वर्क नो-पे )
यह भी तो एक समाजवादी नारा है
जो काम नहीं करता
उसे खाने का क्या हक़ है ?
इसे किस खूबसूरती से पूरा किया जा रहा है
की छे (6) साल का बच्चा
हाथ में बुर्श लिए
पूंजीपतियों के जूते चमका रहा है
भई ठीक ही तो है
काम नहीं करेगा तो कमाएगा क्या
और कमाएगा नहीं तो खायेगा क्या
यही तो समाजवाद है
कल
एक नेता जी भाषण दे रहे थे
कह रहे थे
देश को तरक्की की ओर बढ़ाओ
जागो देश के युवको
“जाग्रति” लाओ
हम सभी मिल कर
“चेतना ” लायेंगे
और शाम को कोठी पहुंचे
पी.ए को आवाज़ दी
मेहता जी “चेतना” लाओ
और ठीक आधे घंटे बाद
“चेतना” आ गयी
असल में “चेतना ” उस लड़की का नाम था
जो जलसे मैं नेता जी का भाषण सुनने
आई थी
नेता जी को भा गयी
और बिन माँ बाप की बच्ची
छोटे-छोटे बहन-भाइओं की भूख
बर्दाश्त न कर सकी और
चंद सिक्कों के लिए
नेता जी के पहलू में आ गयी
हो गयी न तरक्की
आ गया न समाजवाद