समस्या नहीं मुद्दा
समस्या नहीं मुद्दा……
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अमरमणि जी का घर जैसे वैचारिक युद्ध का मैदान बना हुआ था …..बेटा और बाप दोनों अपने जगह से टस से मस होने को तैयार नहीं ।
जहाँ बाप पुरातन विचारधारा “वर्तमान जनरेशन के लिए रूढीवादीता” के कट्टर समर्थक…. वहीं बेटा पुरातनपंथी विचारधारा का धुरविरोधी उसके नजर में पुरातन विचारधारा वर्तमान समय में सफलता के पथ को अवरुद्ध करने से ज्यादा और कुछ नहीं।
हम बात कर रहे है पुण्डरी (काल्पनिक नाम) गांव के ब्राह्मण परिवार में उत्पन्न अमरमणि जी और उनके बेटे शिवमणि का जिसका यह नाम भी अमरमणि जी ने धर्म और संस्कृति को ध्यान में रखकर सभ्यताओं को अक्षुण बनाए रखने के निमित्त ही रखा था।
अमरमणि एक प्राथमिक विद्यालय में शिक्षक हैं उनका एक ही बेटा जिसे पढाने का हर संभव प्रयत्न किए….शिवमणि कुशाग्रबुद्धि था …..घर में शिक्षा जनित माहौल भी था अतः स्नातकोत्तर तक की शिक्षा उसने बड़े ही बेहतर ढंग से पूरी की ….कक्षा दर कक्षा अच्छे नंबरों से पास करते हुए वह यहाँ तक पहुंचा था।
इस बीच वह नौकरी के लिए जीतोड़ प्रयास करता रहा किन्तु हर बार असफलता हाथ लगी …..उसके लिए नौकरी पाना पत्थरों पर दुभ (दूर्बा एक तरह की घास जो हिन्दू धर्म में पूजन के काम भी आती है) उगाने जैसी हो गई थी।
थक हार कर शिवमणि ने राजनीतिक परिक्षेत्र में अपना कदम जमाने का निर्णय लिया । दिमागी तौर पर वह सर्वगुण सम्पन्न था बहुत जल्द ही उसने राजनीति के सारे दावपेच….सारे पैंतरे सिख लिए ….क्षेत्र के एक बड़े नेता से भी उसने जल्द ही गहरी नजदीकी बढा ली अतः चुनाव लड़ने के लिए टिकट मिलने तक का उचित बन्दोबस्त उसने कर लिया ….पिता ने थोड़ी नानुकुर के बाद पार्टी सिंबल के लिए पैसे भी दे दिए ….टिकट तो मिल गया अब थी बारी वोट लेने की और यही वह स्टेज था जहाँ से शिवमणि के राजनैतिक भविष्य का निर्धारण होना था।
शिवमणि क्षेत्र में हर जाती, हर धर्म के लोगों के घर जाना , उनके साथ उठना – बैठना साथ खाना शुरु कर दिया जिससे क्षेत्र में उसके नाम की चर्चा जोरो से होने लगी लेकिन यहीं बात उसके पिता अमरमणि को नागवार गुजरने लगी
….. वो इन सब बातों को धर्म के , संस्कृति के, धर्माचरण के, संस्कार एवं सभ्यता के विरुद्ध मानते थे और इन्हीं विचारों को लेकर प्रति दिन घर में बहस होने लगी।
उनका मानना था किसी के घर जाना, किसी के संग रहना, बाते करना यह सब तो ठीक है किन्तु केवल स्वार्थ सिद्धि के लिए किसी के घर धर्म से विमुख, सभ्यता, संस्कार, संस्कृति के विरुद्ध भोजन करना सर्वथा अनुचित है।
हम ब्राह्मण परिवार से है ….हम कक्ष -भक्ष (मांसाहार, मदिरापान) का सेवन धर्म विरुद्ध मानते है लेकिन केवल वोट प्राप्ति के लिए , जीवन में सफलता के झंडे गाड़ने भर के लिए धर्म के विरूद्ध आचरण कदापि उचित नहीं
लेकिन शिवमणि इन सब बातों को रूढिवाद का संज्ञा देकर, अपने पथ में बाधक मानकर अपना पल्ला झाड़ लेता ।
धिरे-धिरे समय बीतता रहा चुनाव आया और बीत गया …..शिवमणि चुनाव जीतकर सांसद बन गया ।
सांसद बनने के बाद क्षेत्र के ब्राह्मण, ठाकुर, वैश्य जो सरकारी सुविधाओं से इसलिये अलग कर दिऐ गये है क्योंकि वो तथाकथित अगड़ी जाती के है ….इन सभी लोगों को शिवमणि से एक आश जगी कि चलो अब अपना एक बच्चा संसद भवन में गया है अतः वह वहाँ हमारे अधिकारियों का पुरजोर समर्थन करेगा, हमें हमारा हक दिलायेगा…
शायद यहीं अभिलाषा पालकर इन लोगों ने चुनाव के समय जीतोड़ मेहनत भी की थी शिवमणि को चुनाव जीताने के लिए।
वैसे इन तथाकथित अनारक्षित लोगों का मानना था जिस कारण योज्ञता होते हुये भी शिवमणि सरकारी नौकरी से वंचित रहा उस समस्या का समुचित समाधान करने का वह अवश्य ही प्रयत्न करेगा।
समय चक्र चलता रहा , शिवमणि सत्ता के गलियारे में तमाम समस्याओं को भूलकर वर्तमान में प्राप्त स्वपनिल सुविधाओं, संसाधनों, अतिरेक आनंद के इन खुशनुमा पलों को भरपूर जीने में ब्यस्त हो गया , न गांव की कोई चिन्ता, न क्षेत्र या क्षेत्रवासीयों की कोई खोज खबर ।
अगर गलती से कोई स्वजातीय ब्यक्ति या तथाकथित अनारक्षित ब्यक्ति दिल्ली उसके आवास पर मिलने पहुंच गया तो उसके रक्षा में तैनात संतरी यह कहके उसे बैरंग वापस कर देते कि साहब अभी बाहर हैं एक हफ्ते या दो हफ्ते बाद ही यहाँ आयेंगे आप तभी आकर मिल लेना।
सत्ता का मोह , कुर्सी से चिपके रहने की लोलुपता किसी भी इंसान को किसी तरह बदल देती है यह शिवमणि के चरित्र से स्पष्ट झलकने लगा था …..शिवमणि जब भी मुह खोलता अपने अनारक्षित समाज के विरूद्ध ही बोलता दलित कार्ड , अल्पसंख्यक कार्ड जैसे उसके मूल सिद्धांत बन गये, वोट पाने , सत्ता में बने रहने, कुर्सी पर चिपके रहने का उसने हर दाव पेच सीख लिया था और अब उसे ही भूना रहा था।
चुनाव दर चुनाव बीतते गये किन्तु वह पीछे मुड़कर नहीं देखा …..कई ऐसी संस्थायें जो इन समस्याओं का पुरजोर विरोध करने का दावा कर लोगों को अपने साथ एक मंच पर लातीं , चुनाव के समय वह उन्हें भी साम, दाम, दण्ड, भेद जैसे भी बन पड़ता अपने साथ कर लेता और चुनाव जीत जाता
गांव के लोग खुद को ठगा सा महसूस करने लगे उन्हें अपने समस्या सामाधान का जो एक सहारा दिखा था वह भी सत्ता के उन गलियारों में जाकर कहीं विलुप्त हो गया,वह भी पूर्णतया राजनीति के रंग में रंग गया था।
सबने फैसला किया चलो चलकर अमरमणि जी से बात करते है वे ही शिवमणि को समझायेंगे ताकि वो हमारे हक की कोई तो बात करे।
क्षेत्र के अनारक्षित, आरक्षण पीड़ित गणमान्य जन अमरमणि से मिले अपनी समस्याओं को उनके समक्ष रखा …उनका आश्वासन पाकर कि वो शिवमणि से इस संबद्ध बात करेंगे वे लोग वहाँ से चले गये।
कुछ दिन उपरांत शिवमणि जब गांव आया उसके पिता अमरमणि जी ने क्षेत्रवासियों के समस्याओं को उसके समक्ष रखा उसे उसके नौकरी ना मिल पाने की वजह भी याद दिलाई किन्तु शिवमणि पर इन सब बातों का कोई असर न हुआ उलट उसने अपने पिता को यह कह कर चुप करा दिया कि आरक्षण, मंदिर-मस्जिद, हिन्दू- मुस्लिम, अमीरी- गरीबी,बेरोजगारी, महंगाई, भ्रष्टाचार, भुखमरी, नारी उत्पीड़न, यह आम जन के लिए समस्या हो सकती है किन्तु एक राजनीतिज्ञ , एक राजनीतिक पार्टी के लिए यह सब मुद्दे है जिनके बल बूते चुनाव लड़े व जीते जाते हैं अगर हमने इनका सामाधान कर दिया, अगर ये मुद्दे ही समाप्त हो गये तो कल को हमें वोट कौन देगा ।
इन समस्याओं का निवारण कर दिया जाय तो फिर किन मुद्दो हम चुनाव लड़ें।
पापा….आपको राजनीति की समझ नहीं है अतः आप इन झमेलों में नाही पड़े तो अच्छा है…
अमरमणि निशब्द अपने बेटे को देखते रहे , आज उनको समझ आया देश की ऐसी दशा है तो क्यों है।……!
पं.संजीव शुक्ल “सचिन”………….✍