समर्पण
विधा-लघु कथा
शिर्षकः समर्पण
जैसे ही उसके आँगन में पैर रखा ऐसा जान पड़ा मानो घने सन्नाटों की छाया मंडरा रही हो।
मैंने पूछा….चाची कहाँ है संध्या ? चाची ने धीरे से दूसरे कमरे की तरफ इशारा कर दिया। सांझ के उदास छाया में अब कुछ स्पष्ट सा दिखने लगा।वह दरवाजे के ओट पर खड़ी थी।
संध्या! रिश्ता हमारा ऐसा…. जिसमें जीवन के सारे रंग मिलते हैं…. मतलब दोस्ती का ! संध्या.. सांवली थी पर बिल्कुल पावन की मेघ माला सी। मुस्कान से उसके अधर हमेशा भीगी रहते । जब बोलती तो एक मिठास उसके चारों तरफ बिखर जाती।पर आज उसका सुंदर मुख वेदना से विवर्ण हो चुका था ।
संध्या एक सीधी-सादी समर्पित लड़की थी । जो प्रेम करती है सिर्फ प्रेम नहीं बल्कि अपने प्रेमी को महान होते हुए भी देखना चाहती है अब महान तो वह बन गया, पर सर्वस्व दिया इस लड़की ने । आज वह उससे सहानुभूति पाकर ही खुश है। पर सफलता पाकर उस लड़के ने अपने तेवर बदल लिये । पर यह मांग और विरोध का विषय नहीं है ,केवल भावना और सम्मान का है ।
वह लड़का उत्सवी माहौल में बसंती वस्त्रों से सज धज कर अपनी परंपरा का निर्वाह करता है ।और संध्या का मन भयानक वन में विचरण करता है और समझती है कि हकीकत के धरातल पर सपने नहीं ठहरते। आज उसकी कजरारी आंखें लाली से भरी हुई है। सरिता हनी बनी हनी बनी बनी हनी बनी बनी है मैंने उससे पूछा और तुम यहां प्रेम की प्रतिमा बनी अभी जिंदगी बर्बाद कर रही हो। उससे अपना हक क्यों नहीं माँगती हो ? मैंने देखा उसकी आंखों में कुछ विचित्र भाव था तो मैंने बात बदल दी और किसी बिछड़े हुए वायुमंडल को पुनः गतिमान करने की चेष्टा करते हुए हमारे साथ बिताए पलों को याद दिलाने लगी पर अचानक मुझे ज्ञात हुआ जैसे वह मेरे शब्दों को सुन ही न रही हो। मैंने अपनी भारी हो रही पलकें उठा कर उससे विदा मांगी । वह अभी भी ऊपर आकाश की ओर देख रही थी परंतु क्या? पता नहीं चांद को या तारों को! आज लगता है उसके मनोभाव को पहचानने की क्षमता मैंने खो दी है और शायद अपने दोस्त को भी।
-रंजना वर्मा