समय का फेर
आज सालों बाद पैतृक गाँव आना हो पाया,विदेश में जन्मे बढे बच्चों को अपनी जमीन से जो मिलाना था।लंबरदार की हवेली पर नजर पडते ही पल भर में अपना सारा बचपन चित्रपट की मानिन्द आँखों के सामने से गुजर गया,गाँव भर के छोटे छोटे बच्चे तख्ती -भोल्खा ले कर पाठशाला जाया करते ,वन ,टू, थ्री से अभी तक साक्षात्कार भी नहीं हुआ था,एक,दो, तीन ,चार ही समझ आते थे ,अगर कोई कह दे टू ,थ्री,फोर तो भाईसाहब खुद पर ग्लानी होने लगती थी,
हैं ! ये कौन सी भाषा?
कभी कभी संध्या समय वो बच्चों को अपनी चिकने कागज वाली चमचमाती ,रंगीन तस्वीरों से भरी पुस्तकें दिखा ललचाता…
जब बच्चे पास आते तो लम्बरदार उन्हैं हकाल देता..पीछे हटो…
छूना नहीं,गंदी हो जायेगी…
भागो….
तुम्हारे बाप ने भी देखी कभी …
बेचारे भोले भाले बच्चे ,घिस कर चमकाई गई तख्ती झुलाते और खडिया के घोल से भरा भोल्खा साथ पोरी की कलम ले पाठशाला के लिए निकलते जब लम्बरदार के आलीशान घर के सामने से गुजरते तो खुद को बहुत बौना महसूस करते।
इस लिए नहीं कि लम्बरदार का घर आलीशान था बल्कि इस लिए कि उसका पोता अन्ग्रेजी स्कूल की यूनीफार्म पहन कर जरूर कहता यस,व्हाट,हेअर,देअर,ही,शी ,अब समझ तो कुछ आता नहीं था पर सबका बालमन इंफिरियोरिटि काम्पलेक्स से ग्रस्त,यार इसे तो जाने किस किस ग्रह की भाषा आती है ,पक्का एक दिन चाँद पर जायेगा।और हम शायद धरती पर रेंगने वाले कीडे बन जायेगे …
हुर्र…..ट…ट…ट
बर्र…..बर्र……
आवाज पर कान खडे हो गए
वही लम्बरदार का पोता डन्डी फटकारते भैस चराने निकलते दिखाई दिया….
अपर्णाथपलियाल”रानू”
३०.१०.१७