समकालीन हिंदी कविता का परिदृश्य
समकालीन हिंदी कविता का परिदृश्य
खड़ी बोली हिंदी में कविता का इतिहास बमुश्किल डेढ़ सौ वर्ष पुराना है। साहित्येतिहास में यह अवधि कोई ज़्यादा नहीं है, कितु इस अल्पावधि में ही इसका जिस तीव्र गति से विकास हुआ है, वह कम आश्चर्यजनक नहीं। छायावाद, प्रगतिवाद, प्रयोगवाद, नई कविता आदि अनेक छोटे-बड़े काव्यांदलनों से गुजरती हुई यह इक्कीसवीं सदी में पहुँचकर शानदार तेरह वर्ष बीता चुकी है। आजकल हिंदी साहित्य की लगभग सभी विधाओं में समकालीन शब्द का प्रयोग किया जा रहा है। कविता का क्षेत्र भी इससे अछूता नहीं है। कविता के क्षेत्र में सन् 1960 के बाद लिखी कविताओं के लिए समकालीन कविता शब्द का प्रयोग रूढ़ हो चला है। इसका प्रमुख कारण इन कविताओं की कुछ खास प्रवृत्तियांँ हैं।
प्राचीनकाल में कविता इतनी लोकप्रिय थी कि अभिव्यक्ति के सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण साधन के रूप में उसी का प्रचलन था। तब ज्ञान, विज्ञान, दर्शन, कला, साहित्य, संस्कृति, आयुर्वेद, ज्योतिष आदि सभी विषय काव्यमय थे। आज स्थिति बदल चुकी है। अब तो कविता एक प्रकार से सामान्य लोगों की चीज न होकर सिर्फ़ बुद्धिजीवियों के मनस्तोष का एक साधनमात्र रह गई है। आज लोग नागार्जुन, अज्ञेय, मुक्तिबोध, धूमिल, कात्यायनी, रघुवीर सहाय, केदारनाथ सिंह की भावपूर्ण कविताओं का मर्म समझने की कोशिश नहीं करते। परंतु यह भी एक सच्चाई है कि आज कविता लेखन के क्षेत्र में जितने लोग सक्रिय हैं, उतने पहले कभी नहीं रहे। आज साहित्यकार के सामने विस्तृत सामाजिक परिदृश्य एवं उससे उत्पन्न विभिन्न प्रकार के अनुभव हैं, जिनका उपयोग वह अभिव्यक्ति के विभिन्न स्तरों पर कर रहा है। आज का रचनाकार यथार्थ को भोगने और रचने की दोहरी जिम्मेदारी एक साथ निभा रहा है। हिंदी कविता का आधुनिक परिदृश्य व्यापक है। पाश्चात्य या कहें कि यूरोपीय आधुनिकतावाद से प्रेरित होते हुए भी समकालीन कविता ने हमें सदैव अपने नजदीक होने का अहसास दिया है। अन्य शब्दों में हम यह भी कह सकते हैं कि इसने लोक जीवन को अपने भीतर सहेज कर रखा है। टी.एस. इलियट ने लिखा है- ”When a poet writes, he writes his age.’’1 अर्थात् कोई भी कवि जब कुछ लिखता है, तो वह अपने समय की ही अभिव्यक्ति करता है।
कविता चाहे वह किसी भी विचारधारा से सम्बद्ध क्यों न हो, वह लोक जीवन की गहराइयों से जुड़ी हुई अवश्य होती है और ऐसा होना आवश्यक भी है। समकालीन कवि स्वयं को परिवेश के सुख-दुःख, हर्ष-विषाद, संगति और विसंगति का भोक्ता मानकर उन्हें अपने भीतर से महसूस करते हुए अपनी रचनाओं में उभारता है। इस सम्बन्ध में एकांत श्रीवास्तव ने लिखा भी है- ‘‘हिंदी कविता की प्रदीर्घ यात्रा में हर दौर और हर पीढ़ी के कवि अपनी तरफ से कुछ नया जोड़ते रहे हैं। एक लम्बी और प्राचीन नदी में सहायक नदियों का जल आकर मिलता है- कुछ अलग रंग और अलग स्वाद का जल। नया, पुराने में मिलकर कुछ पुराना हो जाता है; पुराना नए के साथ कुछ नया हो जाता है। परम्परा के विकास का यही अर्थ है।’’2
यदि हम पिछले पाँच-छह दशक की हिंदी कविता पर विचार करते हैं तो ये बात स्पष्ट हो जाती है कि इस अवधि में नई कविता की तरह कोई बड़ा आंदोलन उभरकर सामने नहीं आया। इस सम्पूर्ण अवधि की कविताओं पर अपने विचार प्रकट करते हुए भगवत रावत ने लिखा है- ‘‘पिछले लगभग चालीस वर्षों में हिंदी कविता ने अपनी स्वतंत्र पहचान इसलिए बनाई है कि वह किसी आंदोलन विशेष की देन नहीं है। नई कविता के उतार के बाद और कविता के तरह-तरह के छोटे-मोटे नामधारी आंदोलनों के बाद पिछले लगभग चालीस वर्षों में हिंदी कविता ने, न केवल पश्चिम के आतंक से मुक्ति पाई है, बल्कि उस पर किसी तरह का कोई बाहरी दबाव नहीं बचा है। रूस के विघटन के बाद जो मोह भंग हुआ, आज का लेखक इन्हीं परिस्थितियों से जूझते हुए अपनी पहचान बना रहा है। इस पूरे घटनाक्रम से गुजरते हुए हिंदी कविता ने न केवल अपना स्वतंत्र रास्ता बनाया है, अपनी अलग पहचान भी अर्जित की है।’’3
वर्तमान हिंदी कविता को आधुनिक भाव बोध देने में अज्ञेय द्वारा सम्पादित तार सप्तकों की महत्वपूर्ण भूमिका रही। बीसवीं सदी के छठवें दशक में अज्ञेय के तीसरे तार सप्तक के प्रकाशन के साथ-साथ विजयदेव नारायण साही और डाॅ. जगदीश गुप्त के सम्पादन में नई कविता पत्रिका का प्रकाशन शुरु हुआ, जो समकालीन कविता की विकासयात्रा में मील का पत्थर साबित हुई।
समकालीन हिंदी कविता बहुत ही गहराई से समाज विशेषकर राजनीति से जुड़ी हुई है। राजनीतिक परिस्थितियों में जब-जब परिवर्तन होता है, उसका सीधा प्रभाव उस समय की रचनाओं में देखा जा सकता है। कतिपय समीक्षकों एवं शोधार्थियों ने समकालीन कविता में सक्रिय कवियों को क्रमशः छठवें, सातवें, आठवें …… दशक का कवि कहकर अपनी बात रखने का प्रयास किया गया है, किंतु हमारा मानना है कि इस प्रकार की विवेचना न्यायपूर्ण नहीं है, क्योंकि ज़्यादातर कवि किसी एक ही दशक में सक्रिय नहीं रहकर कई दशकों तक सक्रिय रहकर काव्य-सृजन करते हैं। कुछ तो लगातार छह-सात दशकों तक। ये भी एक सच्चाई है कि समय के बदलने के साथ-साथ कवि की शैली एवं रूझान बदलते रहते हैं। इसलिए उन्हें किसी एक दशक का कवि मानना उचित प्रतीत नहीं होता। इसके अलावा हर दशक की कविता अपनी पूर्ववर्ती कविता से बदल जाती हो, ऐसा ज़्ारूरी भी नहीं है। उल्लेखनीय है कि 1967 के नक्सलबाड़ी आंदोलन के प्रभाव में लिखी जाने वाली मुखर एवं उग्र वामपंथी विचारधारा की कविताएँ यथा गोली दागो पोस्टर और जनता का आदमी (कवि-आलोक धन्वा) अब नहीं लिखी जा रही है। स्वयं आलोक धन्वा कुछ मद्धम स्वर में जीवन की दूसरी विसंगतियों को भी अपनी कविता का विषय बना रहे हैं।
देश की आजादी के तत्काल बाद की कविताओं में देशवासियों की आशाओं एवं अपेक्षाओं की अभिव्यक्ति है तो छठवें-सातवें दशक की कविताओं में मोहभंग की स्थिति। इस समय की कविताओं में केन्द्रीय तत्व मानव जीवन ही था, जिसमें मानवीय मूल्यों के क्षरण को नगरीय परिवेश में देखा गया। यही कारण है कि इनमें सामाजिक विसंगतियों के चित्र भी देखने को मिल जाते हैं। प्रगतिशील जनवादी चेतना के साथ-साथ इस समय स्त्री-पुरुष के सम्बन्धों, बेरोजगारी, गरीबी, भ्रष्टाचार, अवसरवादिता, भ्रष्ट व्यवस्था पर भी बहुत सी कविताएँ लिखी गईं। इस समय नई पीढ़ी के कुछ कवियों पर नक्सल आंदोलन का प्रभाव था। उनकी कविताओं में व्यवस्था के प्रति तीव्र गुस्सा एवं आक्रोश देखा जा सकता है।
1971 में पाकिस्तान का विभाजन और बांग्लादेश का उदय हुआ। इस समय वहाँ साम्प्रदायिक दंगा भड़कने से व्यापक नरसंहार हुआ। वहाँ की भयावह स्थिति से भागकर लाखों लोग दर-दर की ठोकरें खाते हुए शरणार्थी के रूप में भारत और अन्य पड़ोसी देशों के अस्थाई शिविरों में रहने लगे। ऐसे शरणार्थियों की मनःस्थिति का चित्रण करती सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की कविता की ये पंक्तियाँ उल्लेखनीय हैं-
आदमी की लाश को
कभी झण्डे की तरह फहराया जाता है
कभी पोस्टर की तरह उठा कर
घुमाया जाता है।4
क्या ही विडम्बनापूर्ण स्थिति थी-तब देश में। एक जाति, एक धर्म और एक ही राष्ट्र के नागरिक एक दूसरे के खून के प्यासे थे। इस समय समकालीन काव्य परिदृश्य पर कई पीढ़ियों और धाराओं के नए-पुराने कवि सक्रिय रहे। इनमें दिनकर, महादेवी वर्मा, नागार्जुन, शमशेर, त्रिलोचन, अज्ञेय, धर्मवीर भारती, मुक्तिबोध, प्रमोद वर्मा, नरेश मेहता, कंुवरनारायण, आलोक धन्वा, केदारनाथ अग्रवाल, रघुवीर सहाय, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, केदारनाथ सिंह, श्रीकांत वर्मा, धूमिल, अशोक वाजपेयी, चंद्रकांत देवताले, विजेन्द्र, लीलाधर जगूड़ी, कैलाश वाजपेयी, ऋतुराज, विनोद कुमार शुक्ल, महेन्द्र भटनागर, गोरख पाण्डेय, ज्ञानेन्द्रपति, वीरेन डंगवाल, मंगलेश डबराल आदि का नाम सम्मानपूर्वक लिया जा सकता है।
सन् सत्तर के बाद की कविताओं की संवेदना बदलने लगी। यह बदलाव बाहर ही नहीं, बल्कि भीतरी स्तर पर भी दिखाई देने लगा था। 1971-72 के आसपास या इसके बाद की पीढ़ी के कवियों में वाम-विचारधारा के प्रति विशेष प्रतिबद्धता देखी जा सकती है। सन् 1975 में लागू राष्ट्रीय आपातकाल भारतीय लोकतंत्र का काला धब्बा साबित हुआ और देश में स्वतंत्रता के बाद पहली बार 1977 में सत्ता परिवर्तन हुआ, परंतु इससे देश के आम आदमी का कुछ खास भला नहीं हुआ। वैकल्पिक जनता सरकार भी अपने अंतर्विरोधों की वजह से ढाई साल में ही सत्ता से बेदखल हो गई।
1980 में केन्द्र में कांग्रेसी सरकार की पुनः वापसी हुई। आम आदमी की स्थिति में सुधार पहले जैसी नौ दिन चले अढ़ाई कोस की भाँति रहा। जब सातवें-आठवें दशक में स्थितियाँ बदलीं तो पुनः केदारनाथ अग्रवाल, नागार्जुन, त्रिलोचन के साथ जन पक्षधर युवा कविता के अनेकानेक कवि दूने वेग से प्रगतिशील अंतर्वस्तु वाली कविताओं के साथ सामने आए, जिसके फलस्वरुप आज निश्चित रूप से समकालीन कविता की मुख्य धारा प्रगतिशील विचारधारा ही है। इस समय की काव्य प्रवृत्तियों पर प्रकाश डालते हुए चंद्रेश्वर ने लिखा है- ‘‘जिस तरह से 1936 के बाद प्रगतिशील आंदोलन के दबाव में ज्यादातर वैचारिक, फेनिल और झागदार कविताएँ लिखी गईं, उसी तरह से 1970 के बाद नए प्रगतिशील-जनवादी दौर में भी आक्रोश की फेनिल और झागदार कविताएँ लिखी गईं।….. 1975 के बाद ही हिंदी कविता शिल्प और अंतर्वस्तु के स्तर पर बदलने लगती है। कविता में घर, परिवार, बच्चे, फूल, चिड़िया, पेड़, पत्नी की वापसी होने लगती है। सामाजिक यथार्थ के बरअक्स कविता में व्यक्ति के रोजमर्रा के छोटे-छोटे सुखों-दुःखों की, जीवन के उपेक्षित कोने-अंतरे की अभिव्यक्तियाँ होने लगती हैं।’’5
इस समय कविता में वैचारिकता बढ़ती गई। फलतः विचारों के संघर्ष और द्वन्द्व ने कविता को विचार कविता बना दिया। समकालीन काव्य परिदृश्य में इस समय पिछले दशक में सक्रिय कवियों के अलावा कुछ अन्य कवि भी उभरे, जिनमें राजेश जोशी, अरुण कमल, उदय प्रकाश, इब्बार रब्बी, विष्णु नागर, असद जैदी के नाम ससम्मान लिए जा सकते हैं।
1980 से 1990 के मध्य देश में राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक स्तर पर तेजी से परिवर्तन हुए। साम्प्रदायिकता और आतंकवाद देश में गहरी पैठ बना चुके थे। श्रीमती इंदिरा गांधी की अपने ही सुरक्षा कर्मियों के हाथों की गई निर्मम हत्या ने देशवासियों को असुरक्षा की भावना से भर दिया था। पंजाब, कश्मीर और असम में स्थिति बेकाबू होने लगी थी। मानवीय जीवन-मूल्यों का क्षरण, भ्रष्टाचार, दलितों और स्त्रियों का शोषण चरम पर था। इसी समय आरक्षण को लेकर देशभर में आंदोलन हुए। जगह-जगह साम्प्रदायिक दंगे भी हुए।
1985 में नई सरकार बनी तो उसका झुकाव अमेरिका की तरफ बढ़ा। पूँजी व बाज़्ाार की सत्ता के सामने राजनैतिक सत्ता झुकती नज़्ार आई। महंगाई से जनता कराह उठी। भ्रष्टाचार के मुद्दे पर देश में एक बार फिर से सत्ता परिवर्तन हुआ, किंतु इस बार भी वह अपना कार्यकाल पूरा करने से पहले ही अंतर्विरोधों से ग्रस्त होकर ध्वस्त हो गई। इस समय कवियों ने मज़दूरों, किसानों, दलितों एवं स्त्रियों की चिंता की तथा अपनी कविता में उनको समुचित स्थान दिया। इस दशक में कई अन्य कवि भी उभरे, जिनमें कुमार अम्बुज, एकांत श्रीवास्तव, बद्रीनारायण, निलय उपाध्याय, बोधिसत्व, कात्यायनी, अनामिका, गगन गिल, तेजी ग्रोवर, निर्मला गर्ग आदि के नाम सम्मानपूर्वक लिए जा सकते हैं।
बीसवीं सदी का अंतिम दशक काफी महत्व रखता है, क्योंकि यह भारी उथल-पुथल का समय रहा। इसी समय सोवियत संघ का विघटन हुआ। पूर्वी यूरोप के देशों से कम्यूनिस्ट शासन समाप्त होने लगा और अफगानिस्तान की स्थितियाँ भी बदलने लगीं। दुनियाभर में अमेरिका का वर्चस्व बढ़ने लगा। ईराक पर आक्रमण किया गया। इन सारी स्थितियों में विचारधारा के स्तर पर एक बहस छिड़ गई, जिसमें साम्यवादी विचारधारा के लोगों को जबरदस्त तर्क-वितर्क से गुजरना पड़ा। लीलाधर मण्डलोई ने लिखा है- ‘‘दरअसल 1990 में रूस में जो हुआ, वह विचारधारा का नहीं, प्रशासनिक व्यवस्था का विघटन था, जिसे ‘ग्लास्नोस्त’ के नाम पर होने से अधिक जानबूझकर सम्भव किया गया। हिंदी की कविता तब मूलतः प्रगतिशील और जनवादी थी। उसका स्वर प्रखर था। उसमें वैचारिक, राजनैतिक चेतना का आवेग था, जिसे हम प्रतिरोध की भाषा में पढ़ रहे थे। वह यकीनन मंद पड़ गया। …..सोवियत संघ के विघटन के बाद इन कवियों में भी काव्य स्वर का बदलना देखा जा सकता है। दरअसल उक्त विघटन के बाद इनके स्वर खासतौर पर आलोक धन्वा, राजेश जोशी, अरुण कमल में वह आवेग और ताप कम हुआ जो पूर्व में विद्यमान था। इन कवियों ने भी जीवन, समाज और प्रकृति के उन विवरणों की तरफ देखना शरु किया जो नवें दशक के कवियों में आ रहा था।’’6
अन्य शब्दों में हम यह कह सकते हैं सोवियत संघ के बिखरने के बाद पूरी दुनिया में वाम आंदोलन और विचारधारा से जुड़े साहित्यकारों के सामने एक तरह की विकल्पहीनता की स्थिति पैदा हो गई थी। अनेक पुराने और नए कवियों के स्वर बदले। सोवियत संघ के विघटन के बाद विकासशील देशों को जिस प्रकार की समस्याओं का सामना करना पड़ा, उसका गहरा असर यहाँ के रचनात्मक मानस पर स्पष्टतः देखा जा सकता है। अब पूँजीवाद ने पूरी ताकत से दुनियाभर में पैर पसारना शुरू कर दिया।
आर्थिक उदारीकरण तथा भू-मण्डलीकरण से दुनियाभर में मुक्त बाजार व्यवस्था प्रचलित हो गई। इससे बाज़्ाार ने अपनी स्थानीयता खोकर वैश्विक स्वरूप ग्रहण करना शुरु कर दिया। ग्लोबल मार्केट की वस्तुएँ सर्वत्र पहुँचने लगीं। इसका प्रभाव हमारी संस्कृति और साहित्य पर भी पड़ना स्वाभाविक है। इस सम्बन्ध में प्रो. अरुण होता ने लिखा है- ‘‘भू-मण्डलीकरण के नाम पर अपने उदात्त सांस्कृतिक वैविध्य को समाप्त करने की भी साजिश रची जाने लगी। एक ही तरह के खान-पान, वेश-भूषा, भाषा, जीवन-पद्धति आदि को प्रोमोट करते हुए भू-मण्डलीकरण ने ‘भारतीयता’ को उखाड़ फेंकने का भी षड्यंत्र रचा है। फलस्वरूप, हमारी जीवन-शैली गहरे रूप से प्रभावित हो रही है। व्यर्थ के चमक-दमक के सामने हमारे पुराने सामाजिक और सांस्कृतिक मूल्य बाधित हो रहे हैं। एक नई संस्कृति पनप रही है …… उपभोक्ता संस्कृति, इसमें सब कुछ खरीदा-बेचा जा सकता है। मनुष्य भी एक प्रोडक्ट मात्र है। मानवता खतरे में है।’’7
भू-मण्डलीकरण, बाजार, निजीकरण, शहरीकरण के हमारे जीवन पर प्रभाव का चित्रण समकालीन कवियों ने अपनी कविताओं में बहुत ही खूबसूरती के साथ किया है। प्रमोद वर्मा की लिखी कविता की कुछ पंक्तियाँ प्रस्तुत हैं-
तिमंजिले इमारत में बदल गया तालाब
गोदाम में तालाब पर घर
बन कर उंची बोली वाला
बरमी टिम्बर के टक्कर का
ए-वन कूप
अपनी शिनाख्त खो बैठा है
सामारूमा भी
बहुत कुछ
मेरी और सम्भवतः
इनकी
उनकी
और आपकी भी तरह।8
नब्बे के दशक की कविताओं के सम्बन्ध में विचार प्रकट करते हुए बद्रीनारायण ने लिखा है- ‘‘नब्बे के दशक की कवियों में गहरा युग बोध, राजनीतिक एवं आलोचनात्मक लोक एवं एक चेतश संवेदना से निर्मित अपने समय एवं जीवन की गहरी आलोचना दिखाई पड़ती है।’’9
भू-मण्डलीकरण की आँधी ने धीरे-धीरे हमारे स्थापित जीवन-मूल्यों को तहस-नहस करना शुरु कर दिया। साम्प्रदायिक ताकतें नए सिरे से सिर उठाने लगी थीं। मंदिर-मस्जि़द का विवाद गहराने लगा था। बीसवीं सदी के अंतिम दशक (सन् 1992 ई.) में ही बाबरी मस्जि़्ाद ढहाया गया। जगह-जगह साम्प्रदायिक दंगे हुए। हज़ारों बेगुनाह मारे गए। लाखों बेघरबार और अनाथ हुए। इस घटना ने साहित्यकारों की संवेदना और चेतना को झकझोर कर रख दिया। समकालीन कवियों ने पीड़ित लोगों की व्यथा को अपनी कविताओं में यथोचित स्थान दिया है। प्रमोद वर्मा की कविता एक लम्बी बहस ही की कुछ पंक्तियाँ उल्लेखनीय हैं-
जिसे हमने
पीर के रूप में स्थापित किया है
उसने सपने में भी नहीं सोचा होगा
कि उसके मुरीद
आदमी के जिस्म से बहते
खून के रंग को ले कर
मज़ार का कोना-कोना
सरोबोर कर देंगे।10
अयोध्या प्रकरण को अभी भुलाया भी नहीं जा सका था कि गोधरा की आग भड़क उठी। इंसानियत शर्मसार हो गई। धर्म और मजहब के नाम पर लोगों को जिंदा जलाया गया। सरेआम माँ-बहनों की इज्जत लूटी गई। इस समय गुजरात प्रदेश में घटी कुछ हृदय विदारक घटनाओं को प्रख्यात समकालीन कवि जितेन्द्र श्रीवास्तव जी की कविता एक भाई का पत्र की इन पंक्तियों में देखा जा सकता हैं-
जब भी देखता हूँ देश का नक़्शा
इस किनारे, उस किनारे
यहाँ-वहाँ, जहाँ-तहाँ
दिखता है बस अहमदाबाद, अहमदाबाद।11
बीसवीं सदी के अंतिम दशक में कई पीढ़ी के कवि समकालीन हिंदी काव्य परिदृश्य में सक्रिय दिखे। इस समय मुख्य रूप से जिन कवियों को पहचान मिली, उनमें सर्वश्री पवन करण, प्रेमरंजन अनिमेश, संजय कुंदन, नीलेश रघुवंशी, तुषार धवल, जय प्रकाश मानस, डाॅ. वंदना केंगरानी, जया जादवानी, संजीव बख्शी, नीलू मेघ, विजय सिंह (जगदलपुर), प्रदीप जिलवाने आदि के नाम सम्मानपूर्वक लिए जा सकते हैं।
इक्कीसवीं सदी का पहला दशक तथा दूसरे दशक के प्रारंभिक कुछ वर्ष बीसवीं सदी के अंतिम दशक की प्रवृत्तियों का थोड़ा-बहुत विस्तार ही है। भू-मण्डलीकरण, बाजारवाद, उपभोक्तावाद, बेरोजगारी, दहेज, स्त्री-पुरुष सम्बन्ध, आतंकवाद, भ्रष्टाचार, साम्प्रदायिकता, अवसरवाद की समस्या आज भी बदस्तूर जारी हैं। दिन-प्रतिदिन बढ़ रहे टी.वी. चैनल, मोबाईल, कम्प्यूटर, ई-मेल, ब्लाॅग और फेसबुक ने संस्कृतियों का घालमेल करके रख दिया है। आजकल टी.वी. चैनल सस्ती लोकप्रियता अर्जित करने और अपनी टी.आर.पी. बढ़ाने के लिए घटिया और सनसनीखेज कार्यक्रमों का सहारा ले रहे हैं। इन चैनलों में फूहड़ तथा द्वि-अर्थी शब्दों के प्रयोग वाली कविताएँ पढ़कर कुछ जुगाड़ू और नामचीन कवि साहित्य के मठाधीश बने बैठे हैं।
किंतु यह भी एक सच्चाई है कि आज का समाज बहुत ही जटिल हो गया है। नब्बे के दशक के बाद की कविताओं के सम्बन्ध में विचार प्रकट करते हुए बद्रीनारायण ने लिखा है- ‘‘नब्बे के बाद का समय तो और भी चुनौतीपूर्ण हो गया। सच एवं यथार्थ जितना 90 के पहले साफ़ दिख रहा था, नब्बे के बाद उतना ही जटिल हो गया। अतः अपने समय से मुठभेड़ और ज्यादा संश्लिष्ट हो गई। परिणामतः नब्बे के दशक के बाद की कविता में एक तरफ पहले से चली आ रही साहित्यिक प्रवृत्तियों के मेटा नेरेटिव टूटे, दूसरे, समय की समझदारी अत्यंत जटिलता के साथ रचनाओं में आने लगी। सामाजिक एवं मानवीय मूल्य जैसे- प्रेम, करुणा, मानवीयता, संवेदना सब भयानक संकट में पड़े दिखे। फलतः मानवीय सम्बन्धों एवं समाज की आलोचना ज्यादा जटिल हो गई, जिसे नब्बे के दशक के बाद के कवियों ने बहुत प्रखरता के साथ एवं गहरी आलोचनात्मक दृष्टि में अपनी रचनात्मकता में जगह दी। कुमार अम्बुुज, एकांत श्रीवास्तव, नवल शुक्ल, अनामिका, देवी प्रसाद मिश्र तथा लीलाधर मंडलोई इत्यादि कवियों मंे यह प्रवृत्ति साफ़ देखी जा सकती है।’’12
समकालीन हिंदी कविता के क्षेत्र में कई पीढ़ी के कवि एक साथ सक्रिय रहे। यद्यपि ऐसा पहले भी रहा है, पर आज जितनी पीढ़ियाँ एक साथ सक्रिय हैं, उतना वैविध्य पहले कभी नहीं था। यह साहित्य के लिए अच्छी बात भी है।
वर्तमान में हिंदी कविता के क्षेत्र में मुख्य रूप से जो कवि शामिल हैं, उनमें डाॅ. केदारनाथ सिंह, आलोक धन्वा, मंगलेश डबराल, राजेश जोशी, अरुण कमल, उदय प्रकाश, हरीशचंद्र पाण्डे, अशोक वाजपेयी, लीलाधर मण्डलोई, महेन्द्र भटनागर, मदन कश्यप, संजय चतुर्वेदी, विमल कुमार, कात्यायनी, अनामिका, बद्रीनारायण, बोधिसत्व, प्रेमरंजन, अनिमेष, संजय कुंदन, गगन गिल, कुमार अम्बुज, निलय उपाध्याय, अग्निशेखर, अष्टभुजा शुक्ल, पंकज चतुर्वेदी, पवन करण, नीलेश रघुवंशी, निर्मला गर्ग, निर्मला पुतुल, सविता सिंह, कुमार वीरेन्द्र, अरुण आदित्य, प्रभात त्रिपाठी, एकांत श्रीवास्तव, जयप्रकाश मानस, प्रज्ञा रावत, रेखा चमोली, संजीव बख्शी, नरेन्द्र जैन, निशांत के नाम सम्मानपूर्वक लिए जा सकते हैं।
यहाँ यह उल्लेख करना मैं जरूरी समझता हूँ कि उक्त सूची में कवियों के कुछ वर्षों की वरिष्ठता-कनिष्ठता का विशेष ख़याल नहीं रखा गया है। ये सभी पूरी प्रतिबद्धता के साथ हिंदी कविता की समृद्धि में अपना महत्वपूर्ण योगदान दे रहे हैं। समकालीन कविता सीधी है, सरल है, लेकिन पूरी तरह से सपाट नहीं। उसके पाँव पूरी तरह से जमीन पर टिके हुए हैं और उसका केन्द्र देश का आम आदमी ही है। उसमें आज के समय और वस्तुस्थिति को अपने तमाम भय और आशंकाओं के साथ यथावत प्रस्तुत करने की क्षमता भी है। शिल्प और अंतर्वस्तु की दृष्टि से हिंदी में स्तरीय कविताएँ लिखी जा रही हैं, आए दिन नए-नए हस्ताक्षर, नए मुहावरे, नए शिल्प, नए विषय और नए-नए प्रयोगों को लेकर हिंदी कविता के परिदृश्य में उपस्थित हो रहे हैं। इससे हिंदी कविता लगातार समृद्ध हो रही है। इन्हें पढ़कर हिंदी कविता के भविष्य के प्रति आश्वस्त हुआ जा सकता है।
संदर्भ स्रोत
1. भारद्वाज, भारत. कविता में चाँदनी की चमक. हंस, जून, 2013. पृष्ठ संख्या 63.
2. श्रीवास्तव, एकांत और कुसुम खेमानी. सम्पादकीय, वागर्थ, दिसम्बर, 2012. पृष्ठ संख्या 7.
3. त्रिपाठी, ब्रजेन्द्र. आज की हिंदी कविता. साहित्य अमृत, सितम्बर, 2011. पृष्ठ संख्या 66.
4. सक्सेना, सर्वेश्वर दयाल. कुआनो नदी. पृष्ठ संख्या 73.
5. चंद्रेश्वर, समकालीन हिंदी कविता का परिदृश्य. वागर्थ, दिसम्बर, 2012. पृष्ठ संख्या 51.
6. मण्डलोई, लीलाधर. नवें दशक के पूर्ववर्ती कवियों में धुर लोक उस तरह से नही था. वागर्थ, दिसम्बर, 2012. पृष्ठ संख्या 16.
7. होता, प्रो.अरुण. हिंदी कविता का समकालीन परिदृश्य और जितेन्द्र. वरिमा, दिसम्बर, 2012. पृष्ठ संख्या 94.
8. वर्मा, प्रमोद. सामारूमा और अन्य कविताएं. प्रमोद वर्मा समग्र-3. पृष्ठ संख्या 321.
9. बद्रीनारायण, ‘लाॅन्ग नाइन्टीज़’ को मात्र एक ‘साहित्यिक कालखण्ड’ के रूप में. वागर्थ, दिसम्बर, 2012. पृष्ठ संख्या 36.
10. वर्मा, प्रमोद. कविता दोस्तों में. प्रमोद वर्मा समग्र-3. पृष्ठ संख्या 31.
11. होता, प्रो. अरुण. हिंदी कविता का समकालीन परिदृश्य और जितेन्द्र. वरिमा, दिसम्बर, 2012. पृष्ठ संख्या 113.
12. बद्रीनारायण, ‘लाॅन्ग नाइन्टीज़’ को मात्र एक ‘साहित्यिक कालखण्ड’ के रूप में. वागर्थ, दिसम्बर, 2012. पृष्ठ संख्या 35.
डॉ. प्रदीप कुमार शर्मा
रायपुर, छ.ग.