सब मुझे मिल गया
सब मुझे मिल गया
रूप की मोहनी,प्रीत की चाहना,
मीन सी है विकल, तुम विकलता हरो।
प्रेम के पाश में, बांँध लो तुम मुझे,
तीर विरहा चला, अब न घायल करो।
यह हृदय दग्ध है, क्लांत बेचैन है,
सावनी मेघ सम, झर रहे हैं नयन।
सीलती काष्ठ सी जल रही देह है,
राह पल-पल तकूंँ, कर न पाती शयन।
अवधि अर्णव हुई, छोर दिखता नहीं,
देह तरणी विरह दग्ध, क्षर हो रही।
घोर तूफान में फँस गई है इधर,
अवधि अर्णव तरूं, किस तरह, रो रही।
फूल गेंदे ,गुलाबों के खिलने लगे
रंग किंशुक पे भी, फागुनी
छा गया।
प्यास ले तितलियांँ, डोलतीं पुष्प पर,
झुंड भ्रमरों का भी, फागुनी गा गया।
आम बौराए, महुए भी, पकने लगे,
आम्र कुंजों में कुहुकिन, कुहुकने लगी।
ओढ़ पीली चुनरिया धरा हँस पड़ी,
गंध मादक पवन संग, बहकने लगी।
ताल में खिल गए हैं कमल देख लो,
कर रहीं बालियांँ, झुक नमन आइए।
बेला, चंपा, चमेली मगन हो रहे,
लद गईं डालियाँ, अब तो आ जाइए।
आस तुझसे जुड़ी, श्वास तुझ से जुड़ी।
प्रेम जल से मेरा, आचमन हो गया।
प्रेम की, प्रेम से जुड़ गयी जब कड़ी।
एक तुम मिल गए, सब मुझे मिल गया।
इंदु पाराशर
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