( सब कुछ बदलने की चाह में जब कुछ भी बदला ना जा सके , तब हाला
( सब कुछ बदलने की चाह में जब कुछ भी बदला ना जा सके , तब हालात शायद ऐसे होजाते हैं )
दिल में जाने क्यों हुई बेचैनी है
जैसे कोई भूली हुई बात कहनी है
आँख भी नम नहीं
अब रूखी सूखी पलकें हैं
गुम हुई वो सदी जिसमें
दो आँसू ढलके हैं
साँस भी गुम है और
घुटी घुटी सी तबीयत है
सुन्न पड़ा है बदन
ना जान है ना हरकत है
रुका हुआ सा लगता है
ज़िंदगी का यह मंजर
था कभी बाग सा
जो लग रहा है अब बंजर
तारीख़ भी याद नहीं
जब ये लब थे थर्राए
खामोशी इतनी कि
लफ़्ज़ों की आहट से हम घबराए
सुबहों में तपिश बड़ी है
और शामें शोलों में जली हैं.
किसको होगा यकीं कि
ज़िंदगी कभी फूलों में पली है
ज़ख्म इतने हैं कि
नहीं गिनती की कोई गुंजाइश है
हादसे दर हादसे हैं
वहशियत की नुमाइश है
फिर भी जिंदा है यह कहने को कि
ज़िंदा हैं हम
वरना सच मान सको तो मान लो
मुर्दा हैं हम
मुर्दा हैं हम
( सर्वाधिकार सुरक्षित स्वरचित अप्रकाशित मौलिक रचना – सीमा वर्मा