सब कुछ पास हमारे
सब कुछ पास हमारे फिर भी वीरानी सी लगती है
यही सोचकर यारों हमको हैरानी सी लगती है
एक पहेली हम क्यों आए कब जाएंगे और कहां
इसको सुलझाने की कोशिश बेमानी सी लगती है
,
शमा कह रही तिल तिल जलना नियति हमारी सदियों से
और उस पर हर रात हमेशा तूफानी सी लगती है
,
लगा रखा चेहरे पर चेहरा चोला रोज बदलते हैं
ऐसे लोगों की तो फितरत बचकानी सी लगती है
,
मेला खेल तमाशा दुनिया कुछ लोगों की नजरों में
यह फितरत ऐसे लोगों की बचकानी सी लगती है
अंधियारे में दीया जलाओ पीर सुनो हर दुखिया की
कुछ लोगों की यह कोशिश तो लासानी सी लगती है
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डॉक्टर इंजीनियर
मनोज श्रीवास्तव
12वीं रचना