सबसे बड़ी गरीब
एक लघुकथा
शीर्षक – सबसे बड़ी गरीब
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आज सुबह किशोर की आँख खुली तो सरला को कुछ अनमना सा पाया l वो तकिये को आगोश में लिए सिसक रही थी l किशोर का मन भी व्यथित हुआ जा रहा था आखिर क्या बात हो गई, उसे कभी भी रोते हुए नहीं देखा, सुख हो या दुख हमेशा मुस्कान उसकी शोभा बनी रही ,,, और आज तो किसी बात की कमी नहीं है,,, गाडी, बंगला, नौकर-चाकर और तो और मै भी तो अब रिटायर हो चुका हूं , बेटा – बेटी विदेश में पढ़ कर वही सैटल हो चुके हैं , अच्छे से रह रहे हैं ,,,..
– “क्या हुआ? ”
– ” कुछ नहीं ”
– ” रो क्यों रही हो… सर में दर्द है क्या?”
– ” नहीं, आपने चाय पी कि नहीं ?”
– ” मेरी चाय की छोड़ो, पहले ये बताओ कि बात क्या है? तुम्हें मेरी कसम !—–”
– ” मै बहुत अभागी हूँ किशोर, कुछ भी समझ में नहीं आता कि मैं क्या करूं, इस उम्र में बच्चो की बहुत याद आती है… कहने को तो सब कुछ है हमारे पास लेकिन अपने आप को बहुत गरीब महसूस करती हूँ l”
– “आखिर हुआ क्या? बच्चों को तो हमने ही भेजा था विदेश में, जिद करके l”
“हाँ भेजा था, लेकिन ये नहीं जानती थी कि वो वही के होकर रह जाएंगे, सच मानो किशोर , अब लगता है कि मैंने अपने पैरों पर खुद कुल्हाड़ी मारी हैं… कल हम लोग गए थे राजेंद्र के यहां, उसका भरा पूरा परिवार देख कर मन को सुकून मिला,,, लड़के- बहुएं, नाती-नातिन ,,, , बेशक वो लोग ज्यादा नहीं कमाते लेकिन राजेंद्र की असली दौलत तो यही है .. बहुओं की बजती पाजेब और चूड़ियाँ, आँगन में गूंजती नन्हें-मुन्नों की किलकारियाँ, ऎसी खुशियों पर तो हजारो करोड़ो निछावर कर दू… सच में किशोर आज मैं अपने आप को बहुत ठगा महसूस कर रही हूँ l ” – कह कर सरला किशोर के सीने पर सर रखके फफक- फफक कर रोने लगी l
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राघव दुबे इटावा
8439401034