सफ़र जिंदगी का (कविता)
सफ़र जिंदगी का (कविता)
आज एक झलक देखी मैंने अपनी जिंदगी को
उससे पूछी ऐ जिंदगी! अभी तक जो मैंने जिया,
क्या वही थी मेरी जिंदगी?
थोड़ी रुक कर बोली, जिंदगी! शायद नहीं,
तब लगा अरे !
अभी तक तो हमने जिया ही नहीं अपनी जिंदगी
होश संभाली तब से जिया, माँ की जिंदगी
थोड़ी बड़ी हुई तो जिया भाई और बाबूजी की जिंदगी
मन में विचार आया
अरे! अब कब जिएगें, हम अपनी जिंदगी?
तब सामने खड़ी थी, समाज की जिंदगी
विवाह हुआ और सामने थी, एक नई जिंदगी
परिवार और ससुराल की जिंदगी!
नए जीवन साथी के साथ, एक नई जिंदगी
फिर जीना शुरू किया, बच्चों की जिंदगी
अब बच्चे बड़े हो गये, और वे जीने लगे अपनी जिंदगी
तब मुझे लगा कि अब तो मैं भी जी लूँ अपनी जिंदगी
अचानक एक दिन मुझसे पूछी मेरी ‘जिंदगी’
तुम क्यों हो नाराज मुझसे,
मैंने पूछा, कौन? जिंदगी!
मुझे देखकर बोली, मेरी जिंदगी
चल हंस पगली और अब तो जी ले अपनी जिंदगी।