सपने सारे टूट चुके हैं ।
सपने सारे टूट चुके हैं ।
हाथ-हाथ से छूट चुके हैं ।
भटक रहे हैं प्राण अकेले –
घट माटी के फूट चुके हैं ।।
✍️ अरविन्द “महम्मदाबादी”
सपने सारे टूट चुके हैं ।
हाथ-हाथ से छूट चुके हैं ।
भटक रहे हैं प्राण अकेले –
घट माटी के फूट चुके हैं ।।
✍️ अरविन्द “महम्मदाबादी”