सन्ध्या के बाद स्त्री हो जाती
ये काली – काली रात अन्धियारा
सन्ध्या के बाद स्त्री हो जाती
ममत्व कहर उठ ऊर्ध्वंग नृत्य करती
किस देह के सौन्दर्य लोलुपता है
स्त्री या पुरुष के द्वंद्व में किसे ढूंढते
ये बड़ी प्रश्न है जो सबूत ढूंढते
पन्थ – पन्थ को पखार लिए को
यौवन गंग में स्नान को खड़ा कौन ?
ये तन में मर्मज्ञ क्या कौन जाने
ले तरस इस जीवन के देश कैसे
वो पंगु हैं अर्थ नहीं तो अनर्थ है
भीड़ है तो उसे जिसे अर्थ है
रूप सौन्दर्य तो बिछी है भृत्य
भम्लुकत के नहीं तो पूछ नहीं
हो न हो होने को कोई कशिश कसर
राख – स्याही से नज़र मिला ली।