सनातन भारत का अभिप्राय
सनातन भारतीयता का श्वासाधारित प्राण है जो भारत की पहचान को अखिल विश्व में प्रसारित करने में मदद करता है वैसे यदि व्याकरणिक विच्छेदत्व के दृष्टिकोण से देखा जाए तो सनातन की शाब्दिक व्युत्पत्ति सना+तन से मिलकर हुई है।जिसमें “सना” का अभिप्राय श्वास व “तन” का अभिप्राय शरीर से है अर्थात जिस प्रकार श्वास शरीर में जीवन प्राप्ति से मृत्यु तक निवास करती है दूसरे शब्दों में कहें जो प्रारम्भ या आदि से है वो अन्त तक रहेगा।उसे ‘सनातन’ नाम से अलंकृत किया जाता है।सनातन ही भारत की गर्वानुभूतिजन्य संस्कृति में हीरे की तरह है जो ओजस्विता और दिव्यता से सम्पूर्ण जगत को तेजोमय पुंज से आलोकित करता है।भारत की भौगोलिकता को समझने के लिए हमें प्राचीन ग्रन्थ की एक उक्ति स्मृतिशेष होनी चाहिए-
“उत्तरं यत्समुद्रस्य हिमाद्रष्चैव दक्षिणम्।
वर्श तट भारत नाम भारती यत्र सन्तति।।”-(१)
अर्थात
ऐसा भूखण्ड जो समुद्र के उत्तर तथा हिमालय से दक्षिण में स्थित है वही भारत वर्ष है और वहीं चक्रवर्ती भरत की सन्तति निवास करती है।भारत के इस प्राचीन ग्रन्थ के यह उद्घोष से स्पष्ट होता है कि सनातन भारत की भौगोलिकता वास्तव में अद्वितीय है चूंकि दोनों तरफ सागर रूपी सनातनी उदारता और हिमालय रूपी सनतनी दृढ़ता के मध्य स्थित भारत के भूभाग में अनेकों नदियां,झीलें प्रवाहित होती हैं।जो इस तथ्य की पुष्टि करती हैं भारत के स्वरूप को विधाता ने कितना अतुलनीय व अद्वितीय बनाया है।
भारत में सनातन का आस्तित्व तब से विद्यमान है जब से इस सृष्टि को प्रजापिता ब्रह्मा ने सृजित किया।चूंकि भारतीय प्राचीन ग्रन्थ जिसकी रचना उसी कालखण्ड में हुई जिसमें विधाता सृष्टि सृजन कर रहे थे।तब से इस सूक्ति को सनातन भारत ने अपने सिरोधार्य रखकर न केवल स्वयंसात किया बल्कि अन्य जगहों पर भी भारतीय मनीषियों ने प्रचारित किया।वह सूक्ति है-
“सं गच्छध्वम् सं वदध्वम्।”-(२)
अर्थात साथ चले और मिलकर बोलें।भारत की सनातन सभ्यता हमें इस ओर इंगित करती है कि एकत्व की भावना से ही सम्पूर्ण जगत को युद्ध कौशल तथा वैचारिकता के धरातल पर जीता जा सकता है।चूंकि हमारी संस्कृति विभिन्नता में एकता लिए हुए की एक पराकाष्ठा है जो विश्व की सभी पश्चात्यादि सभ्यताओं से भिन्न तो है बल्कि नामुमकिन भी है।क्योंकि सनातन भारत की ही एक ऐसी परम्परा है जहां विभिन्न भाषायी, वैचारिक व सामाजिक का वैविध्यवान दृष्टिकोण होते हुए भी सनातन रुपी धागे में पिरोया जाता रहा है।उसका प्रतिफलन हम सबके सामने है भारत में अनेकों आक्रमणकारी व असंगत मानव हितजन्य भी आए और अपनी संस्कृति का कुछ ना कुछ हिस्सा छोड़कर गये जैसे भाषा,पहनावा व भोजन इत्यादि।जिस आक्रान्ता संस्कृति को सनातन भारत की विरासत ने कभी नकारा नहीं जबकि उस संस्कृति ने भारत में उथल पुथल मचाने का कार्य किया।जो कि सर्वविदित है।यही भारतीय सनातन की विराट विचारशीलता व जलधिसम्य उदारता का उत्तम परिचायक है।
सनातन भारत की सैद्धांतिकी सदैव सहजता व उदिरशीलता का पाठ से दिग्दर्शन कराती रही है।हमारे भारत के ऋषि कभी भी शस्त्र लेकर नही गये बल्कि ज्ञान का अद्भुत भण्डार शास्त्र लेकर गये जिससे उन्होंने सम्पूर्ण जगत को अज्ञान रूपी अन्धकार से बाहर निकालने का कार्य किया।जिसका ज्वलन्त प्रमाण स्वामी विवेकानंद का शिकागो वक्तव्य को मान सकते हैं।सनातन भारत सदैव आपदा व विपदा के कालखण्ड में विश्व के मानव मात्र की मदद हेतु शारीरिक,आर्थिक रुप से समय – समय पर मदद करता रहा है।उसका मूल आधार “वसुधैव कुटुंबकम्” ही है।भारत सदैव सम्पूर्ण जगत को एक परिवार के अन्तर्गत मानता है।यही सनातन भारत का वैशिष्ट्य है।
सनातन भारत में पर्यावरण व प्रकृति को पूज्या की कोटि में रखा गया है। चूंकि भारत एक हरियाली के साथा साथ खुशिहाली के देश है।जहां लोक पर्वों व उत्सवों पर प्रकृति या उसके घटकों का पूजन करके उनकी स्तुति की जाती है इसका तात्पर्य सिर्फ और सिर्फ स्तुति से नहीं है बल्कि प्राकृतिक घटकों को ईशसम्य मानकर उनके संरक्षण व विकास की गतिविधियों में सहायता देने से भी है।प्रकृति के महत्व का उल्लेख करते हुए एक सनातनी ग्रन्थ में श्लोक वर्णित हैं जो इस प्रकार है-
“दश कूप समा वापी,दशवापी समोहद्र।
दशह्रदय सम पुत्रों,पुत्रों समों द्रुमः।।”-(३)
अर्थात दस कुओं के बराबर एक बावड़ी है,दस बावड़ियों के बराबर एक तालाब,दस तालाबों के बराबर एक पुत्र है और दस पुत्रों के बराबर एक वृक्ष होता है। भारतीय सनातन परम्परा ही है जो पुत्र से भी बड़कर वृक्ष को समझती है।वृक्ष के जीवन को दस पुत्रों के जीवन से समतुल्य रखकर प्रकृति का महत्वांकन कर उसे एक देवतुल्य मानकर सनातन भारत के सभी जन सामान्य प्रकृति संरक्षण व विकास संरक्षण के उद्घोष से ऊर्जा संचारित करती है।
पर्यावरण,प्रकृति व प्रगति के मध्य अन्तः सम्बन्ध है। जिनके प्रति मानवीय दृष्टिकोण सनातन की सांस्कृतिक विरासत से विकसित होता है और इस सन्दर्भ में भारतीय सनातन संस्कृति की वैश्विक भूमिका प्राचीन काल से मानी गई हैं। पर्यावरण अध्ययन व पर्यावरण संरक्षण भारतीय सनातन संस्कृति के अभिन्न अंग रहे हैं। बाल्मीकि रचित रामायण से लेकर विश्वकवि तुलसीदास कृत श्री रामचरितमानस ग्रन्थ में पर्यावरण संरक्षण का विस्तृत उल्लेख मिलता है। यह तुलसीदास द्वारा रचित दोहे में स्पष्ट दिखाई पड़ता है –
“रीझि – खीझी गुरुदेव सिष सखा सुविहित साधू।
तोरि खाहु फल होई भलु तरु काटे अपराधू।।”-(४)
अर्थात
तुलसीदास ने वृक्ष से फल खाना तो उचित माना बस वृक्ष को काटना अपराध माना है।
त्रैतायुग में भी श्रीराम ने भी चौदह वर्ष का वनवास अपने सौभाग्य के कारण माना जो उनके प्रकृति प्रेम को इंगित करता है। तभी वो मर्यादा पुरुषोत्तम की पदवी को पाए। साथ ही साथ उन्होंनें वनवास अवधि के मध्य स्थानीय राजाओं के प्रलोभनों अर्थात रात्रि विश्राम के प्रस्तावों को ठुकराया और अपनी इस अवधि में प्रकृति की गोद में बैठना स्वीकार किया। सनातन का वैशिष्ट्य पर्यावरण संरक्षण व प्रकृति प्रेम का संदेश श्री राम ने अपने वन प्रवास के समय सीता जी व लखन जी के साथ विस्तृत पौधारोपण करके दिया –
“तुलसी तरुवर विविध सुहाये।
कहुँ कहुँ सिएँ कहुँ लखन लगाये।।”-(५)
सनातन भारत की सम्पूर्ण व्याख्या प्रकृति के बिना स्पष्ट नहीं हो सकती।प्रकृति सदैव सनातन परम्परा के अनुक्रमानपाती रही है।इसका प्रमाण हमें वेदों से लेकर वर्तमान संदर्भों में दृष्टिगोचर होता है।
भारतीय सनातन संस्कृति में नारी महत्व को रेखांकित करने वाली सर्वमान्य व सर्वप्राप्य उक्ति-
“यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः।
यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्राफलाः क्रियाः।।”-(६)
उपरोक्त पंक्तियां अपने उद्घोष से सम्पूर्ण चराचर को आलोकित व गुंजायमान करती रही है।वैसे भी सनातन भारत में नारी अनादिकाल से मान-सम्मान व प्रतिष्ठा का पात्र रही है। चाहे वह सतयुग की प्रहलाद-ध्रुव की कयादू या सुनीति हो या त्रेता की मंजुला त्रिजटा हो या द्वापर की ब्रजेश्वरी हो या आधुनिक की मीरा महादेवी सुभद्रा हो। भारतीय सनातनी विरासत में निहित प्रत्येक मूल्य नारी के त्याग व बलिदान की अमर रेखा से अछूते नहीं हैं। भारतीय धर्म साधना की पुनर्स्थापना में यदि कोई अग्रणी है तो वह नारी ही है।त्रेता में नारी की स्थिति का चित्र का अंकन गोस्वामी से सौकमार्य,व्यवस्थित व तर्कपुष्ट कोई नहीं कर सकता।वो कहते हैं-
“पतिव्रता नारी अनुसरी”-(७)
अर्थात पति अनुगामिनी स्त्री सदैव सुरसम्य वन्दनीय पूज्यनीय है।
ऐसी ही द्वापर में नारी के अमिट ममत्व व निश्छल वात्सल्य के जलधि की हिलोरों से कोई अनभिज्ञ नहीं है।सनातन भारत की नारी में ममता भी है तो कठोरता भी विद्यमान है।एक ओर यशोदा की ममता भरी जलधारा में शायद ही किसी ने न गोते लगाए हों वही दूसरी ओर कठोरता की पराकाष्ठा देवकी अपने सातों नव जन्मनाओं के विनाश को सिर्फ धर्म संस्थापनार्थाय के निमित्त देखती है।मध्यकाल में द्वापर के साक्षात्य दिग्दर्शानार्थ काव्य संसार की व्यापकता को आपनें बन्द चक्षुओं से ही देखने वाले वात्सल्य सम्राट सूरदास कहते हैं-
“जसोदा हरि पालने झुलावे,
हलरावे दुलरावे जुइ सुइ कछु गावे।”(८)
सूर की यह पंक्तियां सनातन भारत में मां की अविरल ममता की परिभाषा में सोने में सुहागा का कार्य करती हैं।यशोदा ममता की पराकाष्ठा हैं जो लोरी गा गाकर अपने लाला को सुलाने के लिए अनेकानेक प्रयत्न करतीं हैं।ऐसी मां की आप्लावित ममता केवल सनातन संस्कृति की ही विशेषांग हो सकती है।अन्य संस्कृति में यह दुर्लभ है।
कवि चन्द ने “हिन्दी,हिन्दवान और हिन्द इन शब्दों का इतनी बार बड़ी ही स्वाभाविकता सहित प्रयोग किया है कि इस विषय में सन्देह शेष नहीं रह जाता कि ११ वीं शताब्दी में ये शब्द जनसाधारण में प्रचलित थे।उन दिनों तो मुसलमानों के पग पंजाब में भी भली भांति न जम सके थे।और यह नही कहा जा सकता कि स्वतन्त्र और स्वाभिमानी राजपूतों ने ऐसे नामों को स्वीकार कर लिया था जिनका प्रयोग शत्रुओं ने उनके खिलाफ घृणा की अभिव्यक्ति के लिए किया।…..,जब शहाबुद्दीन को हिन्दुओं ने बंदी बना लिया और उससे यह वचन लेकर मुक्त कर दिया कि ‘मैं पुनः हिन्दुओं पर कदापि आक्रमण नहीं करुंगा’।”-(९)सनातन स्वभाव के इस उदारवादी दृष्टिकोण को परिभाषित करते हिन्दी साहित्य के आदिकवि चंद्रवरदाई ने कहा –
“राखि पंच दिन साहि अदब आदर बहु किन्नो।
सुत हुसैन गाजी सुपूत हत्थे ग्रहि दिन्नो।।
किय सलाम तिन बार जाहु अपन्ने सुथानह।
मति हिन्दु पर साहि सज्ज आऔ स्वस्थानह।।”-(१०)
सनातन संस्कृति कभी भी किसी के अमंगल की कामना नहीं करती बल्कि सर्वत्र शान्ति की बात करती है और एक श्लोक को अपने सामान्य व्यवहार में सभी ने कल्याण मंत्र के रूप में सुना होगा-
“सर्वे भवन्तु सुखिन:, सर्वे सन्तु निरामया।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु,मा कश्चिद दुख भाग्भवेत।।”-(११)
अर्थात सभी सुखी हो और सभी निरोगी हो की ऐसी कामना सभी भारतीय करते हैं।और सनातन की इस सद्भावाधारित विरासत को अपने उदार व्यवहार एवं सहज व्यक्तित्व से विश्व के कोने-कोने में अपने सांस्कृतिक मूल्यों से अवगत कराते हैं।
सनातन भारत की पहचान के रूप यदि देखें तो चार पुरुषार्थ धर्म,अर्थ,काम व मोक्ष भारत की शोभाकारक तो है ही साथ ही साथ कर्तव्यबोधी भी।सनातन भारत में कोई भी कार्य चाहे वैचारिकाधारित हो या सिद्धान्ताधारित हो सब एक शास्त्रीय नियम से ही संचालित होते हैं।प्रत्येक मनुष्य पहले अपना धर्म करता है जो शास्त्र आज्ञा है फिर अपने सांसारिक जीवन को खुशहाल जीने के लिए अर्थ संचयन करता है तत्पश्चात कामादि करके स्रष्टि सृजन सम्बन्धी दायित्वों को भली भांति निभाता है और अन्ततः मोक्ष मार्ग की ओर स्वयं को अग्रसर करता है।उपरोक्त पुरुषार्थ की जटिलावश्यकता के स्वर भारतीय काव्यशास्त्रीयों के श्लोकों में भी गूंजते दिखाई देते हैं-
“धर्मर्थम् यशस्यमायुष्मम् हितम् बुद्धि विवर्धनम्।
लोकोपदेश जननम् नाट्यमेतद भविष्यति।।”-(१२)
सनातन परम्परा का ध्वजवाहक व प्राचीनत्व की सजीवदायिनी ग्रन्थ ऋग्वेग के उपवेद आयुर्वेद में पंचामृत का भी उल्लेख मिलता है जो गाय का दूध,दही,घी,शहद,चीनी हैं।इनके पांचों पदार्थ व्यक्ति को अमरत्व प्रदान करने का कार्य करते हैं।वैसे भी सनातन भारत ने ही एक विस्तृत कालखण्ड तक विश्वव्यापी उपचार सभी जन मानस को सुलभ किया था यह भारत की महत्ता भी है और सनातन के सांस्कृतिक मूल्यों से आप्लावित गरिमा भी।सनातन भारत में व्यक्ति के समस्त आयुकाल को चार खण्डों में विभाजित करके उसे खण्डानुसार ब्रह्मचर्य,गृहस्थ,वानप्रस्थ व संन्यास माना जाता है।और भारत की यह सनातन परम्परा इन चार आश्रमों में स्वयं को विभाजित करके कर्तव्य ऋण से मुक्ति की ओर अग्रसरित करती है।विश्व की सनातन ही एक ऐसी परम्परा है जो सभी कार्य रीति और वैदिक मूल्यों को आधार मानकर करती है जबकि रीति व परम्परा भी पूर्णतः वैज्ञानिक कसौटियों पर स्वयं को सटीक व व्यवस्थित पाती हैं।
अन्ततः सनातन भारत के सांस्कृतिक मूल्यों,धार्मिक मूल्यों, सामाजिक विचारोत्पन्नाओं का जन सामान्य से संगतता का सम्बन्ध अनादिकाल से आज तक का माना जाता है।यही एक ऐसी परम्परा है जो करोड़ों वर्षों के पश्चात भी पूर्ण रूप के साथ व स्थिरत्व का भाव लिए खड़ी हुई है।सनातन भारत को परिकल्पना बिना भौगोलिकताधारित संकल्पनाओं के करना असम्भव ही है चूंकि भारत की तीन सीमाओं के फलक को समेटे समुद्र उसकी सुन्दरता को अलंकारीयता प्रदान करते है।सनातन भारत में निवास करने वाली जनता विभिन्न भाषा भाषी होने के बावजूद एकत्व से बंधी हुई है वो वेदना रूपी आन्तरिक अश्रु को समझने विलम्ब नहीं करती।बल्कि सनातन की साथ चलने की भावना से स्वयं को अभिभूत पाती है।सनातन भारत एक ईश्वर निर्मित देवभूमि है जो राम राज्य की परिकल्पना को वास्तविकता के धरातल पर साकार किया जा सकता है।
सन्दर्भ सूची:-
१) वेदव्यास,विष्णु पुराण
२)ऋग्वेद
३)मत्स्य पुराण
४) गोस्वामी तुलसीदास,श्री रामचरितमानस
५)गोस्वामी तुलसीदास,श्री रामचरितमानस(पृ०2/236/3)
६)मनुसमृति
७) गोस्वामी तुलसीदास,श्रीरामचरितमानस
८)सूरदास,सूरसागर
९)सावरकर,हिन्दुत्व(पृ०40)
१०) चंद्रवरदाई, पृथ्वीराज रासो(सं नामवर सिंह,)
११)वृहदारण्यक उपनिषद्
१२)भरतमुनि, नाट्यशास्त्र
लेखक- आशुतोष सिंह (अध्येता- दिल्ली विश्वविद्यालय)