सत्संग की ओर
||श्री राधाकृष्णाभ्याम नमः ||
|| श्री स्वामी हरिदासोविजयतेत् राम ||
|| श्रीमन्नीत्यनिकुंजविहारिणे नमः ||
श्री हरि- गुरु की कृपा से जीव को मनुष्य देह की दुर्लभता का ज्ञान होता है| यह श्री भगवान की अहेतु की कृपा ही है जो वह जीव को बरबस अपनी ओर खींचते हैं| कृष्ण नाम का मतलब ही यही है जो जीव को अपनी और आकर्षित करे | अतः जीव को सदैव यह स्मरण रखना चाहिए कि उसका स्वरूप क्या है?
अतः जीव का स्वरूप नित्य कृष्ण के दास का है| अतः दास को सदैव अपने स्वामी की सेवा में लगे रहना चाहिए| आध्यात्मिक जीवन में प्रविष्ट व्यक्ति के मन में सर्वप्रथम यही दो प्रश्न उठते हैं प्रथम मैं कौन हूं?द्वितीय मेरा लक्ष्य क्या है? उनके उत्तर हमें सद्गुरु के पास जाकर विनीत भाव से पूछने पर प्राप्त होते हैं| एवं जो उत्तर प्राप्त होता है वह यह है कि हम जीव भगवान के अंश हैं एवं अंश अंशी के अधीन होता है अतः जीव का स्वरूप कृष्ण के नित्य दास का है और जीव का लक्ष्य अपने स्वामी की सेवा प्राप्त करना है|
अब प्रश्न यह उठता है की सेवा कैसे करनी है? इसका सीधा सा उत्तर है जो अपने स्वामी को प्रिय हो केवल वही कार्य करना,अपनी मनमानी न करना,स्वयं के सुख के लिए कोई कार्य न करना,स्वसुख की कामना का त्याग करना, तत्सुखसुखीमय होना यानी अपने स्वामी की प्रसन्नता ही अपना लक्ष्य हो,उनको सुख प्रदान करना ही अपना सुख हो| तत्सुखसुखी का सर्वोत्तम उदाहरण गोपियां है जिनकी प्रत्येक क्रिया मात्र का उद्देश्य कृष्ण को सुख पहुंचाना था | उनके प्रत्येक कार्य में स्वसुख की लेश मात्र भी गंध नहीं थी | इसलिए गोपियां प्रेम की ध्वजा कहलाई | हमारी वर्तमान स्थिति ऐसी नहीं है वर्तमान में हमारी स्थिति एक नर्सरी के स्टूडेंट की तरह है हमें प्राइमरी लेवल से शुरू करके धीरे-धीरे इस लेवल को आगे बढ़ाते रहना है| अन्यथा वहीं एक ही कक्षा में पड़े रह जाएंगे इसके लिए बेसिक समझने होंगे जिस प्रकार भौतिक जीवन में हम एल के जी से शुरुआत करके प्राइमरी, मिडिल,हाई स्कूल,हायर सेकेंडरी,ग्रेजुएट, पोस्ट ग्रेजुएट,पीएचडी करने पर विशेषज्ञता हासिल करते हैं और उसमें जीवन के 25 से 30 वर्ष लग जाते हैं तब कहीं जाकर एक विषय या एक फील्ड का ठीक-ठाक ज्ञान हो पता है |उसी प्रकार आध्यात्मिक क्षेत्र में भी धीरे-धीरे प्रगति होती है| यहां हमें जल्दी मचाने की पड़ी रहती है| 6 महीने साल भर में ही व्यक्ति प्रेमप्राप्ति,भगवादानुभूति की इच्छा करने लगता है |भला ऐसे कैसे हो सकता है?
पहले हमें पात्रता हासिल करनी होगी| नियम पूर्वक भजन करना होगा जिससे धीरे-धीरे नाम जप में मन लगने लगेगा एवं फिर भगवान उस भाव में हमें दृढ़ करके साधन भजन में सहायता प्रदान करते हैं |हरि -गुरु की कृपा से साधक का मन निर्मल होने लगता है फिर कृपा होने लगती है|
जिस भी जीव का भगवत प्राप्ति लक्ष्य है उसे कहां से शुरुआत करनी होगी? इसका उत्तर है वह जहां जिस स्थिति में है वहीं से शुरुआत कर सकता है |निरंतर मन में भगवदविषयक चिंतन करें,नाम स्मरण करें, भगवान से प्रार्थना करें, भगवान की लीला कथाओं का श्रवण करें,पठन करें,मनन करें |इत्यादि करने से धीरे-धीरे भगवान के प्रति प्रेम विकसित होता है |जिनके गुरु नहीं है वह भी हरे कृष्ण महामंत्र का कीर्तन करें या राधेकृष्ण नाम का जाप करें भगवद कृपा से स्वत: उन्हें गुरु प्राप्ति समय अपने पर हो जाएगी उन्हें गुरु खोजना नहीं पड़ेगा| बशर्ते भगवत प्राप्ति की सच्ची लगन हो चाह हो और प्रार्थना में नियमित पुकार हो |
इसके पश्चात एक साधक की दिनचर्या क्या होती है? एक साधक जो भगवत प्राप्ति का लक्ष्य लेकर चलता है उसे बहुत सावधान रहना पड़ता है वह सावधानियां क्या है?
(1) सदैव सत्संग करें यानी कुसंग से दूर रहे यह सावधानी मुख्य है अतः नंबर एक पर है इस पर बने रहने से बाकी सब सावधानियां पूरी हो जाती है |
(2) श्री हरि गुरु को सदैव अपने संग माने |
(3) श्री गुरु की आज्ञा का पालन करें|
(4) निरंतर नाम स्मरण करें|
(5) नियम पूर्वक रूप ध्यान सहित नाम जप करें|
(6) नाम अपराध से बचें |
(7) श्री हरि उनका रूप,नाम,गुण,लीला,धाम और हरि के जन सभी अभिन्न है अतः निरंतर इनमें मन लगाए रखें|
(8) निरंतर अपनी श्रद्धा को बढ़ाएं और पुष्ट करें |
(9) कंठी,तिलक धारण करें एवं माँस ,मदिरा,प्याज लहसुन,इत्यादि पदाथों का सेवन न करें|
(10) मन- वचन -कर्म से एक बनने का प्रयत्न करें| मात्र शरीर से किसी विषय का त्याग या बोलने मात्र से त्याग नहीं होता मन में भी उन विषयों का चिंतन ना करें |प्राय:हम कह कर या शरीर द्वारा विषयों का बाह्य रूप से त्याग कर देते हैं किंतु मन में उन विषयों का चिंतन करके सुख भोगने का प्रयास करते हैं अतः साधक को मनसा वाचा कर्मणा एक होना होगा|
(11) पर निंदा से बचें |
(12) काम क्रोध लोभ मोह इत्यादि नहीं छूटते तो इन्हें भगवदोनमुख करना है कामना भगवत प्राप्ति की हो, क्रोध यह हो कि भगवान कब मिलेंगे?लोभ भजन करने का हो,मोह उनकी रूप माधुरी का हो,अहंकार यह हो कि भगवान मेरे हैं|
(13) माता-पिता गुरु संत वैष्णव की सेवा करें|
(14) भगवान के धामों की यात्रा करें|
(15) अपनी आय का चार भागों में विभाजन करें जों गृहस्थी, तीर्थ, दान, और वैष्णवों की सेवा में व्यय हों |
(16)मान बढ़ाई स्वयं की स्तुति प्रशंसा से सदैव बचें|प्राय: व्यक्ति अन्य मायिक फंदों से तो बच जाता है किंतु स्वयं की प्रशंसा या प्रतिष्ठा के चक्कर में फंस जाता है l
कंचन तंजना सहज है सहज तिया का नेह, मान,बढाई,ईर्ष्या दुर्लभ तजना येह |
(17) राग-द्वेष किसी से ना करें सभी जीवो को भगवान का अंश समझ अपना सहोदर भ्राता समझे|
(18) अपने अमूल्य समय का सदुपयोग करें जब हम यह बात भली- भांति समझ गए हैं कि नर तन दुर्लभ है,सुर-मुनि के लिए भी यह दुर्लभ है,अन्य सब भोग योनियाँ है यही कर्म योनि है केवल इसी में हम भगवद भजन कर सकते हैं तो स्वत:हम मानव देह की दुर्लभता महत्ता जानने पर अपने समय का सदुपयोग भगवदभजन करने में लगायें |
यह मानव देह दुर्लभ तो है पर इसमें पानी के बुलबुले के समान नाश होने की क्षमता है जाने कब हमसे छीन जाए?अतः एक भी सेकंड एक भी स्वाँस वृथा कार्यों,बकवास,गप्प लगाने,में खर्च न करें|
स्वाँस- स्वाँस में भगवान के नाम का स्मरण करने का अभ्यास करें|
चलते- फिरते,उठते -बैठते, खाते -पीते, जागते- सोते,नित्य क्रिया करते मन में, सांसारिक कार्य करते हुए सतत भगवान को साथ मानते हुए नाम स्मरण करें | पुराने समय में ना टीवी था ना मोबाइल मन के पास कोई मैटर नहीं होता था| अतः भजन में मन लग जाता था आज कुसंग के यह सबसे बड़े साधन है टीवी,मोबाइल |अतः इनसे यथासंभव बचने का प्रयास करना चाहिए| दिनभर व्यक्ति टीवी,मोबाइल से चिपका रहता है| सोचता है कि भजन भक्ति भी मोबाइल पर ही हो जाए| अलग से आसन लगाकर जप क्या करना? मोबाइल ही आज के युग में माया का सबसे बड़ा फंदा है | अतः यह समझकर इसे केवल आवश्यकता अनुसार ही उपयोग करें अन्यथा सारा समय इस पर ही वृथा चला जाएगा |
पूर्व में भी कहा जा चुका है स्व- सुख का त्याग करना है| विषय भोग हम अनंत -अनंत जन्मों से भोंगते आ रहे हैं |कई जन्मों में 84 के चक्कर में हम देव,इंद्र,राजा, कुकर सुनकर सब बन चुके हैं यानी हम पिसे हुए को पीस रहे हैं अतः यह विषय भोग हमें इस 84 के चक्कर में भटकाते रहेंगे |यही शुभ अवसर है मानव देह मिला है यह कृपा,उस पर सद्गुरु भी मिले यह सोने पर सुहागा अतः इस स्वर्णिम अवसर को चूकना नहीं है |अपने सांसारिक कार्य शीघ्र से शीघ्र निपटा कर भजन में लग जाए और ज्यादा से ज्यादा भजन हो ऐसा प्रयास हमें करना चाहिए अपने घर- गृहस्थी,ऑफिस के कार्य करते हुए भी निरंतर नाम स्मरण करते रहना चाहिए|
” शरणागति ”
शरणागति से तात्पर्य है श्री हरि गुरु की शरण ग्रहण करना| मन वचन कर्म से अपने आप को उन्हें अर्पण कर देना| उनसे सदैव प्रार्थना करें हे प्रभु हमें अपनी शरण में ले लो एवं मन वचन कर्म से एकमात्र अपने हरि -गुरु की शरण में रहो |साधक यही समझे एकमात्र प्रभु ही मेरे हैं एवं मैं उनका हूं फिर भक्त निर्भीक हो जाता है क्योंकि उसने अपना सर्वस्व भगवान को सौंप दिया है अब उसकी देखरेख स्वयं भगवान करेंगे| उसे अब किसी प्रकार की चिंता करने की आवश्यकता नहीं है इसका सर्वोत्तम उदाहरण श्री प्रहलाद जी महाराज है |
मनुष्य स्वभाव से ही दुष्ट है जैसे ही मौका मिला यह दुष्टता से नहीं चूकता और हमेशा गलत ही करेगा अतः जो अच्छा काम हमसे हो रहा है वह सब भगवान की ही कृपा है |प्राय: मनुष्य का मन सांसारिक विषय भोगों के चिंतन में ही लगा रहता है क्योंकि अनंत काल से उसे इसी का अभ्यास है भगवद भजन एवं चिंतन का उसे अभ्यास बिल्कुल नहीं है| अतः सत्संग कीर्तन में वह आसानी से नहीं लगता अतः इसे भगवद भजन में धीरे-धीरे लगाना पड़ता है जब मन को अभ्यास हो जाएगा तब स्वतः भगवान में लगेगा फिर इसे लगाना नहीं पड़ेगा|
इस हेतु नियमित श्री गुरु एवं श्याम श्याम से कातर भाव से प्रार्थना करो है सद्गुरु भगवान हे श्यामा श्याम मैं आपका हूं और आप मेरे में इस दुस्तर माया से बच नहीं सकता |मैं अधम और पतित हूं काम क्रोध,लोभ -मोह से घिरा हूं |बार-बार प्रयास करने के पश्चात भी मैं इनमें फंस जाता हूं शायद मुझे प्रयास करना नहीं आता या मैं प्रयास करना नहीं चाहता मात्र कह देता हूं और इस पर मन -कर्म -वचन से अमल नहीं कर पाता |मुझ अधम जीव को देखो आपसे ही असत्य भाषण कर जाता हूं |
बार-बार आपसे कहता हूं मैं समस्त दुर्व्यसनों को त्याग दूंगा,कुसंग नहीं करूंगा और फिर मेरा मन मौका मिलते ही इन विषय भोगों में लिप्त हो जाता है |अनंत काल से आपसे झूठ बोलते आ रहा हूं फिर भी मैं जानता हूं आप परम उदार अहेतु की कृपा करने वाले हो |मुझे बार-बार अवसर प्रदान करते हो कि मैं अब ठीक से भजन करूंगा और हर बार की तरह पुनः आपको भूल विषय भोग में लग जाता हूं|
अतः है मेरे प्यारे श्यामा -श्याम अब मैं आपकी शरणागत हूं |और आपकी कृपा पर निर्भर हूं |मेरे में सामर्थ्य नहीं कि मैं मन पर विजय पा सकूँ, माया को जीत सकूँ | अतः आप ही दया कर मुझे अपना लीजिए अपने निज चरणों का दास बना लीजिए और अपनी भक्ति प्रदान कीजिए| मेरा मन आपके चरणों के सिवा कहीं जाए नहीं,जिव्हा आपके नाम का उच्चारण करती रहे, नासिका आपके चरण कमल में अर्पित तुलसी पत्र एवं पुष्प की सुगंध ग्रहण करने में लगे |
मेरी आंखें केवल आपकी रूप माधुरी का पान करें,मेरे हाथ सदा आपका कीर्तन करने में ताली बजाने में एवं संत वैष्णव जन की सेवा में लगे,मेरे कान केवल आपके सुंदर नाम का श्रवण करें, पाद केवल मंदिर एवं आपके धाम में जाने में लगे एवं आपके सम्मुख नृत्य करने में लगे|
इस प्रकार मेरे प्राण जीवन श्यामा -श्याम आपके अलावा और कहीं भी मेरी समस्त इंद्रियाँ और मन कहीं न जाए |मन सदैव आपकी लीला कथा का चिंतन करें| हे मेरे प्राण धन श्यामा -श्याम में प्रार्थना करना नहीं जानता मेरी बुद्धि मात्र शब्दों का जाल बुनना जानती है जिसमें कोई भी भाव नहीं है| मेरी सारी प्रार्थनाएं मात्र आपके भक्तों के चरित्र पढ़ सुनकर,सीख कर बनाई गई है एवं मुझ में मात्र छल कपट भरा है |में दीन हीन नहीं फिर भी दिखावा करता हूं |दंभ एवं कपट मेरे शब्दों का आधार है अतः मेरे श्यामा -श्याम मेरे इन कपट पूर्ण शब्दों पर ही रिझ जाइए और मुझे अपना लीजिए |
मेरे मन में मात्र मल भरा हुआ है विषय भोग रूपी चिंतन का,धन भौतिक वस्तुओं की प्राप्ति की लालसा मेरे मन में है | अभी भी मन में यही इच्छा है कि इसे पढ़कर लोग मुझे बड़ा भक्त जानेंगे अपने भावों को लोगों को प्रस्तुत करता हूं स्वयं की प्रशंसा के लिए लोगों के मन में मेरे प्रति आदर बने |इसलिए मेरे भाव मात्र आपके श्री चरणों में अर्पित हो मुझे इन सारे फंदों से मुक्ति मिले आपके निज चरणों की सेवा के अलावा मेरी समस्त इच्छाएं समाप्त हो जाए ऐसी कृपा करें|
क्रमश. ……..
©ठाकुर प्रतापसिंह राणा
सनावद (मध्यप्रदेश )