सत्तावन की क्रांति का ‘ एक और मंगल पांडेय ’
1857 में अंग्रेजों के खिलाफ सैन्य विद्रोह करने वालों में मंगल पांडेय का नाम ही अब तक सुर्खियों में आता रहा है, जबकि मंगल पांडे के अलावा भी ऐसे कई क्रांतिवीर पैदा हुए, जिनके नेतृत्व में एक नहीं अनेक स्थानों पर सामूहिक सैन्य विद्रोह हुआ।
1857 के विद्रोह के इतिहास पर यदि हम गौर करें तो पता चलता है कि बहादुरशाह जफर के नेतृत्व में एक तरफ अवध, रुहेलखण्ड, नीमच, पंजाब सहित अन्य प्रांतों में भी अंग्रेजी सेना के भारतीय सैनिकों ने अंग्रेजों के विरुद्ध बगावत का झण्डा बुलंद किया था। लखनऊ रेजीडेंसी पर 87 दिन तक अग्रेजों के खिलाफ जो सैन्य विद्रोह हुआ उसमें लगभग सात सौ विद्रोही मारे गये थे।
विद्रोह की यह आग कथित तौर पर भले ही गाय और सूअर की चर्बी लगे कारतूसों के कारण भड़की हो, लेकिन यह विद्रोह सोची-समझी रणनीति के तहत हुआ था। योजनाबद्ध तरीके अंग्रेजों के खिलाफ उनकी सेना को भड़काने का कार्य अलीगढ़ के एक सैनिक पंडित भीष्म नारायण ने भी किया।
पंडित भीष्म नारायन जो भीके नारायन के नाम से भी मशहूर थे, का जन्म मथुरा जनपद के सादाबाद-सहपऊ मार्ग के मध्य स्थित गांव खोड़ा मढ़ाका के विख्यात लाठा-पचौरी परिवार में हुआ था। यह परिवार उस काल में बहादुरी और योग्यता के लिये दूर-दूर तक विख्यात था। 1857 से पूर्व यह परिवार क्रान्तिकारी गतिविधियों का केन्द्र बन चुका था। इसी परिवार की सक्रियता के चलते स्वतंत्रता संग्राम के बीजों का अंकुरण 1856 में मथुरा के घने जंगलों में किया गया। यहां भादों माह में देश के अनेक क्रान्तिकारी एकत्रित हुए। इस बैठक में तात्याटोपे, अजीमुल्लाह, रंगोबाबू बादशाह, बहादुर शाह जफर के शहजादे मीर इलाही आदि ने अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह की रणनीति बनायी। इस बैठक का आयोजन हिन्दू संत खुशाली राम कजरौटी वाले ने किया। इतिहास लेखक पं. सच्चिदानंद उपाध्याय ने लिखा है कि खुशाली राम ने 1857 की क्रान्ति से बहुत पहले उ.प्र. के अतिरिक्त बंगाल और बिहार का दौरा करते हुए जब सन् 1856 में अलीगढ़ तथा बुलंदशहर की अंग्रेजी फौज में देशभक्ति का जज़्बा भर कर अंग्रेजों को हिन्दुस्तान से खदेड़ने की बात कर रहे थे, तभी बुलंदशहर में एक अंग्रेज फौजी अफसर ने उनकी हत्या कर दी।
पंडि़त भीष्म नारायन उर्फ भीके पंडि़त इसी देश भक्त संत खुशाली राम के रिश्तेदार थे और इसी संत के कहने पर अंग्रेजों की सेना में ‘आजादी के विशेष उद्देश्य की पूर्ति’ हेतु भर्ती हुए थे। चूकि भीके नारायन का भी उद्देश्य अंग्रेजी सेना में सेवारत हिन्दुस्तानी सिपाहियों में अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह की भावना का संचार करना था, अतः उन्होंने इस क्रांतिकारी कार्य को पूर्णता प्रदान करने के लिए अपना कार्य क्षेत्र बुलंदशहर चुना और वहां महीनों तक अपनी गुप्त गतिविधियां जारी रखीं। जब वे बुलंदशहर में अंग्रेजों की फौज की यूनिट में देशभक्ति की भावना भर रहे थे, उसी समय उनके किसी देशद्रोही अंग्रेजभक्त साथी ने अंग्रेज अफसरों से शिकायत कर गिरफ्तार करा दिया गया। उन्हें अलीगढ़ लाया गया और उन पर कोर्ट मार्शल किया गया। बीस मई 1857 को फांसी पर चढ़ाने का फरमान जारी किया गया।
फांसी के समय और उसके बाद फैली बगावत का वर्णन करते हुए प्रख्यात क्रान्तिकारी सावरकर लिखते हैं कि ‘‘20 मई की संध्या को जब भीके नारायण को वधमंच पर लाया गया तब इस ब्राह्मण ने अग्निमय भाषण दिया और हंसते-हंसते मृत्यु को अपने गले लगा लिया। फांसी के पूर्व शब्द-रक्त की जो अविरल धारा इस ब्राह्मण के मुख से अग्नि का रूप धारण कर प्रकट हुई वह आसपास खड़े अग्रेज सत्ता के भारतीय सैनिकों में बिजली की तरह कौंध गयी। चारों ओर खड़े सैनिक क्रोध से पागल होकर घनगर्जन करने लगे, ‘फिरंगी राज्य की अर्थी निकालो, फिरंगी राज्य मुर्दाबाद।’ सैनिकों में बढ़ती हुई इस विद्रोह की भावना को भांपकर सारे अंग्रेज अधिकारी अपने बीबी-बच्चों को लेकर रात में ही अलीगढ़ सैन्य छावनी से फरार हो गये।
उक्त घटना के उपरांत देशभक्त जेल प्रहरियों ने जेल का फाटक खोलकर बन्दियों को जेल से मुक्त करा दिया। विद्रोही सैनिकों, जिनमें डाक बंगला के खासनामा रसूल खां और कोचवान मीर खां आदि ने विदेशी शासकों के निवास स्थान पर भारी लूट की। भले ही उस समय अलीगढ़ में मेजर एल्ड की 9 वीं रेजीमेंट के तीन सौ सैनिक मौजूद थे किन्तु, ये सब चुपचाप खड़े इस लूट का तमाशा देखते रहे।
पंडित भीके नारायन की फांसी के उपरान्त कई दिन तक अलीगढ़ निवासियों ने अंग्रेजों दासता से मुक्त होकर चैन की सांस ली। आजादी की इस लड़ाई में पंडित भीके नारायन की शहादत को मंगल पांडेय की शहादत से कम करके नहीं आंका जा सकता है।
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