#सच_स्वीकार_करें…..
#आपदा_के_बाद
■ सच स्वीकार करें…..
【प्रणय प्रभात】
लगभग तीन साल तक आपदा के एक विकट दौर ने दुनिया को बता दिया कि किसी भी मनुष्य के दैनिक जीवन की वास्तविक व अनिवार्य आवश्यकताएं कितनी सीमित हैं। साथ ही यह भी समझा दिया कि हम कितनी चीज़ों के बिना आराम से जीवित और आनंदित रह सकते हैं।
फिर अर्जन व संचय को लेकर इतनी आपा-धापी क्यों…? इतना संघर्ष क्यों, कि जीवन का वास्तविक लक्ष्य व आनंद कोसों पीछे छूट जाए? जो असमय व अकस्मात गए, वो कितना और क्या ले गए अपने साथ…?
पानी के बुलबुले जैसे एक क्षण-भंगुर से जीवन के लिए नश्वर साधनों व संसाधनों के संग्रहण व प्रदर्शन की अंधी होड़ क्यों…? हो सके तो सोचिएगा ज़रूर। पूछिएगा भी कभी। किसी और से नहीं अपने आप से। अगर आपने आपदा काल में अपार समृद्धि व संपन्नता के बाद भी किसी अपने को असहाय व दयनीय होकर खोया हो और उसकी पीड़ा से उबर न पाए हों तो।
जिनकी वेदना समाप्त हो चुकी हो, वे अपना घड़ा भरते रहें। एक दिन फूटने के लिए, ताकि अगली पीढ़ी आपके कर्मों का हिसाब अपने कृत्यों से बराबर करने का अवसर पा सके। ठीक वैसे ही, जैसे आपने पाया आपदा-काल की सौगात या वरदान के रूप में। ऐसे में घड़ियाली आंसू बहा कर और रोनी सूरत बना कर अपने वास्तविक मनोभावों पर झूठ का झीना सा आवरण डालने की चेष्टा भी न करें। सबको पता लगने दें कि अवसरों से भरपूर आपदा-काल अभिशाप नहीं वरदान था। विशेष रूप से उनके लिए जो स्वयं को अस्तेय और अपरिग्रह जैसे महान सिद्धांतों का पक्षधर मान कर आत्म-गौरव की अनुभूति का दम्भ भरते आ रहे हैं। प्रभु श्री इस श्रेणी के क्षुद्र व धृष्ट जीवों सहित उनकी संतति पर करुणा-पूर्वक करुणा करें। हम तो मात्र इतनी सी प्रार्थना कर सकते हैं। सामाजिक सरोकारों के वशीभूत, एक शुभेच्छु के रूप में।।
【प्रणय प्रभात】
●संपादक/न्यूज़&व्यूज़●
श्योपुर (मध्यप्रदेश)