संसार का स्वरूप(3)
ये मानव देह भी संसार ही है।संसार के अंतर्गत वे सभी आ जाते है जो नाशवान है।ये देह भी नाशवान है अतः देह और संसार दोनो नश्वर है। हमें जो भी दृश्य जगत दिखाई दे रहा है जो भी सुन, स्पर्श समझ ,या ज्ञानेंद्रियों से अनुभव कर रहे है सब का सब नाशवान है।हुआ क्या है कि इस देह के भीतर जो है, वो देही वो चैतन्य है ,अविनाशी है।देह के मिटने पर भी वो नही मिटता।
उस देही से भूल ये हुई की वो स्वयं के स्वरूप, आत्मस्वरुप की वो चैतन्य का अंश है इस बात को भूल के स्वयं को देह समझ बैठा।ये मुख्य दोष सारे दोषों का कारण है।अब स्वयं को देह मानने से इस देह के संबंधियों को भी अपना मान लिया ।ये मेरी पत्नी है, पुत्र है, पुत्री, माता -पिता ,बहन ,भाई इत्यादि।इसे ही मोह कहते है।वस्तुओं को भी अपना मान लिया ये मेरा घर ,मेरा धन,ये ममत्व है।रुपया पैसा को महत्व दे दिया।स्वयं को देह मानने से इस देह में इतनी ममता हो गई की इस देह को थोड़ा भी कष्ट हो तो दु:खित हो जाता है।साथ ही देह और इन्द्रियों के विषय काम- क्रोध, लोभ- मोह इत्यादि विकारों को भी स्वयं में मानकर लोगो से राग द्वेष कर सुख और दु:ख मान रहा है।यहां ये बात स्पष्ट है की देह सुख और दु:ख का भोक्ता नही बल्कि देही सुख और दु:ख का भोक्ता है क्योंकि उसने देह से तादात्म्य कर लिया है।तादात्म्य माने संबंध जोड़ना। देही है चैतन्य अविनाशी किंतु भूलवश स्वयं को देह मान रहा है।वास्तव में देही भी सुख- दु:ख का भोक्ता नही है क्योंकि अविनाशी को सुख- दु:ख नहीं व्यापता वो तो चैतन्य का अंश होने से सत चित आनंद ही है।उसका स्वरूप आनंदमय ही है।ये तो स्वयं को देह मान लेने से देही
कहा जा रहा है वो तो अक्षर ,अनश्वर, अविनाशी ,आनंद स्वरूप ही है।
क्रमश:…….आगे आत्मस्वरुप पर चर्चा होगी
©ठाकुर प्रतापसिंह राणा
सनावद (मध्यप्रदेश)