संवेदना कभी श्राप भी है।
है बहुत संवेदना मेरे मन के अंदर;
इसलिए मैं अयोग्य हूँ,…
इस जग के अंदर।
सारा जीवन इस संवेदना की,
भेंट चढ़ गया।
बनाने वाला भी मुझे,
दुःख के सोने से गढ़ गया।
रेगिस्तान के रेत में जैसे,
सोना भी बेमोल हुआ है।
मेरा भी ऐसे ही न कोई,
अपनों में मोल हुआ है।
सब का दर्द मैंने समझा,
दर्द दूर किया।
सब अच्छे बने रहे,
मुझे बुराई में मशहूर किया।
मैं अपनों के गम,
मिटाती रही।
सब का ख़्याल रखकर,
खुद को घटाती रही।
ये संवेदना और संवेदनहीनता का,
युद्ध सारा था।
मैं सबसे ज्यादा लड़ी पर,
मैंने ही हर सुख हारा था।
काश! मैं संवेदनाहीन होती कई जगह।
तो इतने दुःख न पाती हर जगह।
कहता मेरा हर चिंतन-मनन,
मेरी संवेदना ही बनी दर्द हर जगह।
प्रिया प्रिंसेस पवाँर
स्वरचित,मौलिक
द्वारका मोड़, नई दिल्ली-78