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3 May 2024 · 1 min read

संवेदनाएँ

वेदनाओं के भंवर में, खो गईं संवेदनाएँ
चित्त के भ्रम बंधनों में, खो गईं हैं चेतनाएँ

लालसा के इस नगर में, खो गईं सारी दिशाएँ
द्वंद के उपजाऊ वन में, खो गईं सब मित्रताएँ

तमस की गहरी निशा में, खो गईं हैं तारिकाएँ
वासनाओं की गली में, खो गईं सब प्रेमिकाएँ

तन के नश्वर पिंजरों में, खो गईं हैं मनुजताएँ
अंतसों की कलुषता में, खो गईं हैं मधुरताएँ

नीर से छलके नयन में, खो गईं सब यातनाएँ
असत के गहरे कुँए में, खो गईं निश्छल सदाएँ

वेदनाओं के भंवर में, खो गईं संवेदनाएँ
चित्त के भ्रम बंधनों में, खो गईं हैं चेतनाएँ

नि:सीम भौतिकवादिता में, खो गईं हैं आत्माएँ
कपट के कंटक डगर में, खो गईं हैं सरलताएँ

बंद होकर पुस्तकों में, खो गईं कविता कथाएँ
शोर के बिखरे स्वरों में, खो गईं सब गीतिकाएँ

आडम्बरों की व्यर्थता में, खो गईं लावण्यताएँ
अहम् की प्रतियोगिता में, खो गईं निश्चिंतताएँ

आधुनिकता की लहर में, खो गईं सद्भावनाएँ
अश्लीलता के जंगलों में, खो गईं हैं सभ्यताएँ

वेदनाओं के भंवर में, खो गईं संवेदनाएँ
चित्त के भ्रम बंधनों में, खो गईं हैं चेतनाएँ

डाॅ. सुकृति घोष
प्राध्यापक, भौतिक शास्त्र
शा. के. आर. जी. काॅलेज
ग्वालियर, मध्यप्रदेश

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