संविधान /
समीक्षार्थ : गीत
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:: संविधान ::
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फूलों की भी
कांँटों की भी
मैं समताओं
की किताब हूंँ ।
आम पके
गदराने नींबू
मध्य क्षेत्र के
काश्मीर की
केशर मुझमें
अमरोहा के रोहू ।
नीर भी
मुझमें, क्षीर
भी मुझमें
मुझमें गिरि
सौंदर्य मांसल
और दहकता लोहू ।
नागफनी का
धत्तूरे का
अर्क,जवासा
का हिसाब हूंँ ।
मैं समताओं
की किताब हूंँ ।
सुगर मालियों
के चिंतन ने
मुझे ग्रंथ का
रूप दिया है ।
सदियों का
शोषण बिष
पीकर मैंने शिव
संकल्प लिया है ।
बातें बिल्कुल
खरी-खरी हैं,
रातें मेरी
हरी-हरी हैं ।
मुरझाए हैं
जहां -जहां दिन
मैं उन चेहरों
का हिजाब हूंँ ।
मैं समताओं
की किताब हूंँ ।
निम्न वर्ग के
उच्च भाव के
उच्च वर्ग के
नम्र ताव के
सम्मिश्रण का
लेखा-जोखा ।
खोटा करने
की कोशिश में
लगे हुए हैं
मेरे बेटे फिर
भी मैं हूं
अब तक चोखा ।
मैं हर भूखे
का भोजन हूंँ
हर प्यासे का
मधुर आब हूं ।
मैं समताओं
की किताब हूंँ ।
०००
— ईश्वर दयाल गोस्वामी
छिरारी (रहली), सागर
मध्यप्रदेश ।
मो – 8463884927