संवाद
कुण्डलिया
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अपने अपने ढंग से, सब करते संवाद।
और संस्मरण स्नेह के, कर लेते हैं याद।
कर लेते हैं याद, बात आगे बढ़ जाती।
इसी तरह से नित्य, जिंदगी बीती जाती।
कहते वैद्य सुरेन्द्र, सत्य होते जब सपने।
बातचीत में खूब, सुनाते अनुभव अपने।
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हर प्राणी में आपसी, होते वार्तालाप।
और बढ़ा करते सतत, आगे क्रिया कलाप।
आगे क्रिया कलाप, जिन्दगी एक पहेली।
अनसुलझी हर बार, लगा करती अलबेली।
कहते वैद्य सुरेन्द्र, भाव प्रकटाती वाणी।
निज भाषा संकेत, लिए रहते हर प्राणी।
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नूतन हल मिलते हमें, खूब करें संवाद।
खत्म हुआ करते सहज, सारे वाद विवाद।
सारे वाद विवाद, जिन्दगी सुखमय बनती।
बातचीत से मधुर, स्नेह रसधार निकलती।
कहते वैद्य सुरेन्द्र, खूब खिल उठता है मन।
जब हो वार्तालाप, मित्र मिलते नित नूतन।
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दो पक्षों में बीच में, नित्य रहे संवाद।
मिट जाती सब दूरियां, बिना किसी अवसाद।
बिना किसी अवसाद, फूल अधरों पर खिलते।
रिश्तों को आधार, नये प्रतिदिन हैं मिलते।
कहते वैद्य सुरेन्द्र, बात सबको कहने दो।
आपस के मनभेद , कहीं भी मत रहने दो।
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-सुरेन्द्रपाल वैद्य, मण्डी (हि.प्र.)