संयुक्त परिवार – भाग १
मै बचपन से संयुक्त परिवार में रहना चाहता हूँ क्युकी दस साल का था तब मुझे माँ और दादी और भाईओ से अलग होना पड़ा पढाई की वजह से लेकिन अपने जीवन के दस से लेकर बीस साल के उम्र में मैंने अपने परिवार को बहुत याद किया। पापा थे साथ लेकिन पूरे परिवार की कमी हमेशा महसूस होती थी इसीलिए जीवन का मकसद ही बना लिया की अच्छे से पढ़ना है पैसे कमाने है और पूरा परिवार साथ रहेंगे। जो सपना मेरा पूरा हुआ जब मै चौबीस साल का हुआ तब से लेकर आज 9 साल हो गए सभी भाई साथ रह रहे है है और परिवार से मेरी दादी हमें छोड़ कर गयी इस दुनिया से तो 2 नए सदस्य मेरी पत्नी और बेटी जुड़ गयी परिवार में। सब सही चल रहा है लेकिन कभी कभी कुछ दिनों के अंतराल पर वो सब हो जाता है परिवार में जो मै कभी नहीं चाहता जैसे सास बहु में अनबन या फिर देवर भाभी में खटपट और मै खुद ऐसी स्थिति में पाता हूँ की क्या करू कुछ समझ नहीं आता और अपना धैर्य खो देता हूँ जिसमे ज्यादातर मै अपनी पत्नी को नाराज कर देता हूँ। भाई सभी बराबर के हो गए है कोई भी अब बच्चा नहीं रहा मै अपनी इज्जत बचा के रखना चाहता हूँ इस वजह से उन सभी को डांटने से बचता हूँ इस परिवार के अनबन की वजह से क्युकी डरता हूँ कभी भाई लोग को ये न लगे की मै पत्नी का पक्ष ले रहा हूँ और पत्नी का पक्ष न लू तो सुनने को मिलता है की वो लड़की तो मेरे सहारे ही अपने पुरे परिवार को छोड़ कर आयी है मै उसका साथ नहीं दूंगा तो कौन देगा। मेरी पत्नी चाहती है की जैसे भाई लोग मेरी हर बात सुनते है इज्जत करते है वैसे ही उसकी भी करे लेकिन शायद देवर भाभी के रिश्ते में यह मुमकिन नहीं है और इस बात को मेरी पत्नी भी नहीं समझ पा रही है। मै अपना पूरा ध्यान अपने काम और पढाई और पुरे परिवार की बेहतरी किसमे होगी उसमे लगाना चाहता हूँ लेकिन कभी कभी इन सब के चक्कर में पड़ कर पूरा दिन ख़राब कर लेता हूँ। हम कोई सतयुग में तो जी नहीं रहे है की मै राम जैसा बड़ा भाई खुद को कह सकू लेकिन हमेशा कोशिश करता हूँ एक अच्छा बड़ा भाई बन के रहू लेकिन इस बात का डर भी मुझे रहता है की ये कलयुग है किसी दिन मेरे छोटे भाई ने मुझसे ही बत्तीमीजी कर ली तो मेरे आत्मसम्मान का क्या होगा इसलिए भाईओ से दोस्तों जैसा ही व्यव्हार रखता हूँ उनकी चिंता करता हूँ की वो हमेशा सही राह पर चले जिससे उसे और परिवार को कभी कोई परेशानी न हो। शादी के बाद से ही मेरे दिल में इस बात का डर रहता था की मै कहीं बदल न जाऊ क्युकी मैंने ऐसे बहुत कहानी सुना है की शादी होते ही बदल गया और किसी की नहीं सुनता है बस अपनी पत्नी की सुनता है इस डर से मैंने अपनी पत्नी से थोड़ी दुरी बना के ही रहा उतनी ही बात साझा करता जितने की जरुरत है उतना ही समय उसके साथ बिताता जिससे कभी ये न लगे की परिवार का समय पूरा मै पत्नी को ही दे रहा हूँ शायद इसी वजह से कई बार झगडे भी हुए मेरे मेरी पत्नी के साथ लेकिन मै बदला नहीं। मुझे परिवार में कोई भी महिला आंसू बहाये बहुत चुभता है चाहे वो मेरी माँ हो या पत्नी या फिर छोटी सी बेटी ही क्यों न हो ऐसी स्थिति में मै अपना संयम खो देता हूँ और हमेशा शांत रहते हुए भी ऐसी समय में मेरी आवाज तेज हो जाती है। मुझे जो लगता है ऐसी स्तिथि का कारण है हमारे बोलने का तरीका शायद हम सभी अगर अपने बोलने में एक दूसरे के प्रति इज्जत लेकर आये तो ऐसा कभी होगा ही नहीं। मै पहले से बहुत ज्यादा शांत हो गया हूँ और होता जा रहा हूँ क्युकी मुझसे उम्मीद बढ़ती जा रही है और मै अपनी पत्नी को भी यही समझाता हूँ की हम बड़े है हमें अपने छोटे के आगे थोड़ा नरम होना ही पड़ेगा उनकी भी हर बात को समझना होगा उनसे ज्यादा जिम्मेदारी हमारे कंधे पर है इस परिवार की पहचान हमसे होगी। वो बदमाशी करेंगे तो चलेगा हमारा काम है उसे भूल जाना और आगे बढ़ना लेकिन मै जानता ये बहुत मुश्किल है किसी के लिए भी लेकिन मुझे अब धीरे धीरे इसकी आदत होती जा रही है क्युकी अगर मेरा परिवार खुश है तभी काम कर पाऊंगा अच्छे से और अपने सपने पुरे करने के लिए मेहनत कर पाऊंगा। हम सभी भाई को एक साथ मिलकर मेहनत करनी होगी तभी हम आने वाले बच्चो को या फिर परिवार के सदस्य को एक अच्छी जिंदगी दे पाएंगे।