संभव होता उम्मीदों का आसमान छू जाना
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२२ २२ २२ २२ २२ २२ २२
संभव होता उम्मीदों का आसमान छू जाना
छोड़े हम बैठे होते, बेमतलब का हकलाना
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हमको समझे होते,ऊपर से नीचे तक जिस दिन
मुमकिन उस दिन हो जाता,चाहत का और ठिकाना
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बारिश का मौसम ,केवल खामोशी से आता है
यादों के जंगल में भीतर ,पैरहन भिगा जाना
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लेकर अपनी सूरत रोनी सी कल से बैठे हैं
खुशियों का लगता, इस दीवाली लौट नहीं आना
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सुशील यादव
न्यू आदर्श नगर दुर्ग (छ.ग.)
susyadav7@gmail.com
7000226712
4.4.24.