*संपूर्ण रामचरितमानस का पाठ : दैनिक रिपोर्ट*
संपूर्ण रामचरितमानस का पाठ : दैनिक रिपोर्ट
दिनांक 8 मई 2023 सोमवार प्रातः 10:00 से 11:00 तक
लंकाकांड दोहा संख्या 36 से दोहा संख्या 77 तक का पाठ हुआ।
पाठ में श्रीमती शशि गुप्ता, श्रीमती मंजुल रानी एवं श्री विवेक गुप्ता की मुख्य सहभागिता रही।
कथा-सार : कुंभकरण और मेघनाद का वध हुआ
कथा-क्रम :
भगवान राम की अलौकिक सामर्थ्य को रावण की पत्नी मंदोदरी समझ रही थी। उसने अनेक प्रकार से समझाते हुए रावण से कहा :-
कृपासिंधु रघुनाथ भजि, नाथ विमल यश लेहु।। (लंकाकांड दोहा संख्या 37)
अर्थात भगवान राम कृपा के सिंधु हैं। उनको भजो अर्थात उनसे मैत्री करो और उनकी शरण में जाओ । तुमको विमल यश प्राप्त होगा।
लेकिन रावण की बुद्धि को काल ने अपने वश में किया हुआ था ।
लंका के चार विशाल द्वार थे:-
लंका बांके चारि दुआरा (लंकाकांड चौपाई संख्या 38)
भगवान राम ने विभीषण, सुग्रीव, जामवंत आदि से सलाह करके सब द्वारों पर विजय के लिए चार दल और उनके सेनापति बनाए।
तुलसीदास जी ने रावण के हास्य को अट्टहास की संज्ञा दी है। जब रावण को पता चला कि वानर और भालू सेना लंका के द्वार पर चली आ रही है, तो वह बहुत जोर से हॅंसा । तुलसी ने इसे अट्टहास की संज्ञा दी :-
अस कहि अट्टहास सठ कीन्हा। (लंकाकांड चौपाई संख्या 39)
अट्टहास एक प्रकार से राक्षसी हॅंसी को दर्शाने वाला शब्द है । अट्टहास शब्द का प्रयोग ही तुलसीदास जी मेघनाथ की हॅंसी के लिए भी कर रहे हैं।
गर्जेउ अट्टहास करि (लंकाकांड दोहा संख्या 72)
अट्टहास शब्द का प्रयोग रावण और मेघनाथ के संदर्भ में करने का तात्पर्य इनकी हॅंसी की भयावहता को दर्शाता है।
लंका का युद्ध सीधे-सीधे राम और रावण के बीच का युद्ध था:-
उत रावण इत राम दुहाई (लंकाकांड चौपाई संख्या 40) अर्थात एक पक्ष रावण का तथा दूसरा पक्ष राम की दुहाई अथवा जय जयकार कर रहा था।
विशेष बात यह भी रही कि लंका में सब नागरिक रावण को बुरा कह रहे थे :-
सब मिलि देहिं रावनहि गारी (लंकाकांड चौपाई संख्या 41)
युद्ध में पश्चिमी द्वार को जीतने के लिए हनुमान जी के साथ जब अंगद भी लग गए, तब क्या ही सुंदर लयात्मकता का आश्रय लेते हुए तुलसीदास जी ने हनुमान जी और अंगद जी की युद्ध-प्रवणता को अपनी भाषा-शैली में व्यक्त किया है:-
युद्ध विरुद्ध क्रुद्ध द्वौ बंदर। राम प्रताप सुमिरि उर अंतर।। (लंकाकांड चौपाई संख्या 43)
रावण की सेना के पास मायावी शक्तियॉं थीं, लेकिन यह शक्तियां अत्यंत घृणित कोटि की होती थीं। इनमें रक्त की वर्षा होती थी। कई बार खून के साथ-साथ बाल और हड्डियां भी बरसती थीं। पिशाच और पिशाचिनी मारो-काटो के शब्द बोलते थे। यह सब एक प्रकार से वाम-मार्ग के द्वारा की गई साधना से प्राप्त शक्तियों का संचय था। जिस विधि से साधना की जाएगी और जैसी शक्तियां प्राप्त होंगी, वैसी ही व्यक्ति की बुद्धि भी बन जाती है। रावण की सेना दुष्ट विचारों से ओतप्रोत शक्तियों में विश्वास करती थी। रावण की माया कुछ इस प्रकार रहती थी:-
भयउ निमिष महॅं आति ॲंधियारा। वृष्टि होइ रुधिरोपल छारा।। (लंकाकांड चौपाई संख्या 45)
हनुमान प्रसाद पोद्दार जी इसकी टीका इस प्रकार लिखते हैं कि पल भर में अंधकार हो गया। खून, पत्थर और राख की वर्षा होने लगी।
मेघनाद जिस प्रकार की शक्तियां रण में दिखा रहा है, उसका वर्णन तुलसीदास जी इन चौपाइयों में करते हैं:-
नाना भांति पिशाच पिशाची। मारकाट धुनि बोलहिं नाची।। विष्ठा पूय रुधिर कच हाड़ा। बरसइ कबहु उपल बहु छाड़ा।। (लंकाकांड चौपाई संख्या 51)
हनुमान प्रसाद पोद्दार जी उपरोक्त चौपाई की टीका इन शब्दों में करते हैं कि अनेक प्रकार के पिशाच और पिशाचनियां नाच-नाच कर मारो-काटो की आवाज करते हैं। विष्ठा,पीव, खून, बाल, हड्डियां बरसती हैं और कभी बहुत से पत्थर फेंक देता है।
एक समय ऐसा भी आया जब मेघनाद ने “वीरघातिनी शक्ति” चलाकर लक्ष्मण जी को मूर्छित कर दिया। ऐसे समय में हनुमान जी की बुद्धि और शक्ति ही काम आई। वह लंका जाकर सुषेण वैद्य को लेकर आए। यह एक बड़ा काम था लेकिन अभी और भी बड़ा काम हनुमान जी के माध्यम से होना शेष था। सुषेण वैद्य ने एक पर्वत और औषधि का नाम बताया। तब उसके बाद हनुमान जी उस औषधि को लेने के लिए पर्वत की ओर चले।
उधर रावण को इस घटनाक्रम का जब पता चला तो उसने कालनेमि नामक राक्षस की सेवाएं प्राप्त कीं। कालनेमि ने अद्भुत मायाजाल रचा । हनुमान जी के मार्ग में माया से एक मंदिर, बाग, तालाब आदि निर्मित कर दिया । स्वयं कालनेमि वहां पर कपटी मुनि का वेश बनाकर बैठ गया। वह भगवान राम के गुणगान भी गाने लगा।
अब आप देखिए कि किस पर भरोसा किया जाए ? साधु-वेशधारी भगवान राम के गुण गा रहा है लेकिन भीतर से कपटी राक्षस है। हनुमान जी को तालाब में एक मगरमच्छ मिला, जो उन्हें खा जाना चाहता था लेकिन जब हनुमान जी ने उस मगरमच्छ को मारा तो उसने सद्गति प्राप्त करते समय कालनेमि का भेद खोल दिया। बस फिर क्या था ! हनुमान जी ने पलक झपकते ही कालनेमि के प्राण ले लिए। कथा बताती है कि हमारे मार्ग में बाधा डालने के लिए न जाने कितने कालनेमि रूप बदलकर घूमते रहते हैं। वे ऊपर से अच्छी-अच्छी बातें कहते हैं, लेकिन उनके मन में पाप भरा होता है और वह हमारे सद्प्रयासों में बाधा डालने के लिए ही उपस्थित होते हैं। उन्हें पहचान कर उन पर विजय प्राप्त करना ही हमारे लिए एकमात्र सही उपाय हो सकता है।
अभी बाधाएं और भी आती हैं। जब हनुमान जी पर्वत पर पहुंचकर औषधि की ठीक-ठीक पहचान नहीं कर पाए तब उन्होंने बुद्धि और बल का प्रयोग करते हुए पूरा पहाड़ ही उखाड़ कर वैद्य जी के पास ले जाने का निश्चय किया। समय कम था। यह करना जरूरी था। एक तो समय कम और ऊपर से एक विपत्ति और यह आई कि जब हनुमान जी आकाश मार्ग से चलते हुए अयोध्या के ऊपर से गुजर रहे थे तो भरत जी ने हनुमान जी के इरादों के प्रति संदेह करते हुए उन्हें बाण मारकर मूर्छित कर दिया। लेकिन उसके बाद जब हनुमान जी ने सारी आपबीती भरत जी को सुनाई तब भरत जी ने कहा कि मैं अपने बाण पर बिठाकर तुमको रामचंद्र जी के पास भेज सकता हूं । लेकिन हनुमान जी ने भरत जी से कष्ट नहीं कराया तथा उनसे कहा कि आपके अर्थात भरत जी के प्रताप से मैं बिना देर किए स्वयं चला जाऊंगा :-
तव प्रताप उर राखि प्रभु, जाहउॅं नाथ तुरंत (लंकाकांड दोहा संख्या 60)
भगवान राम लक्ष्मण की मूर्छा देखकर दुखी हो रहे हैं। वह कहते हैं कि संसार में सारे संबंधी दोबारा मिल सकते हैं, लेकिन सहोदर भ्राता एक बार चला गया तो दोबारा संसार में नहीं मिलता:-
मिलइ न जगत सहोदर भ्राता (लंकाकांड चौपाई संख्या 60)
हनुमान जी द्वारा लाए गए पर्वत से सुषेण वैद्य ने औषधि ढूंढी और इलाज किया। लक्ष्मण जी की मूर्छा दूर हो गई।
अब कुंभकरण को रावण ने युद्ध के मैदान में उतारा। राक्षसों का खाना और पीना किस प्रकार का होता था, इसके संबंध में तुलसीदास जी की चौपाई देखिए:-
महिष खाइ करि मदिरा पाना। गरजा वज्राघात समाना।। (चौपाई संख्या 63 लंकाकांड)
अर्थात भैंसा खाया, शराब पी और वज्राघात के समान गरजने लगा।
कुंभकरण ने भीषण युद्ध किया किंतु भगवान राम ने एक-एक करके उसकी दोनों भुजाओं को काट दिया और उसका सिर काट कर रावण के आगे फेंक दिया। सिर कटने के बाद भी कुंभकरण का धड़ जब दौड़ने लगा तो भगवान ने उसके दो टुकड़े कर दिए। इस बात का भी उल्लेख तुलसीदास जी करते हैं कि कुंभकरण की सेना से लड़ते समय भगवान राम ने एक लाख बाण छोड़े थे तथा उन्होंने अपना कार्य करने के उपरांत पुनः भगवान राम के तरकश में स्थान ग्रहण कर लिया था। राक्षसों की मायावी शक्तियों से अलौकिक रूप से अवतरित भगवान राम ही विजय प्राप्त कर सकने में समर्थ थे।
प्रश्न यह भी उठता है कि क्या राम-रावण युद्ध में सब कुछ अलौकिक ही था ? उत्तर यह है कि सब कुछ ऐसा नहीं था। युद्ध तो युद्ध की तरह से ही हो रहा था। कुंभकरण की मृत्यु के बाद जब मेघनाद ने मोर्चा संभाला और उसने नागपाश फेंका। तब भगवान राम उस नागपाश में थोड़ी देर के लिए बंध गए। तुलसीदास ने इसे युद्ध की शोभा की संज्ञा दी:-
रण-शोभा लगि प्रभुहिं बॅंधायो (लंकाकांड चौपाई संख्या 72) अर्थात हनुमान प्रसाद पोद्दार जी के शब्दों में “रण की शोभा के लिए प्रभु ने अपने को नागपाश में बांध लिया।”
मेघनाथ और भी अधिक शक्तियां प्राप्त करने के लिए यज्ञ करने लगा । ऐसे में विभीषण की सलाह से भगवान राम ने मेघनाद के यज्ञ को विध्वंस करने के लिए लक्ष्मण को भेजा । राक्षसों का यज्ञ भी राक्षसों की प्रवृत्ति के अनुसार ही होता था । इस यज्ञ में वानरों ने देखा कि मेघनाद रुधिर अर्थात खून और भैंसे की आहुति दे रहा है :-
आहुति देत रुधिर अरु भैंसा (लंकाकांड चौपाई संख्या 75)
अनैतिक और अपवित्र कार्य को अगर यज्ञ की संज्ञा दी जाती है तो इससे वह पवित्र नहीं बन जाता। उसका नष्ट होना सर्वथा उचित है।
यज्ञ का विध्वंस करने के बाद लक्ष्मण जी ने मेघनाद से युद्ध किया और उसका वध कर दिया । मेघनाद के शोक में लंका डूब गई। नगरवासी व्याकुल हो गए । मंदोदरी रुदन करने लगी।
रावण ने सबको समझाया कि यह संसार नश्वर है, इस बात को हृदय में सदैव धारण करना चाहिए। तुलसीदास जी को रावण के इस व्यवहार पर मानो हंसी आ गई और उन्होंने एक बड़ा अच्छा दोहा लिखा :-
पर उपदेश कुशल बहुतेरे। जे आचरहिं ते नर न घनेरे।। (लंकाकांड चौपाई संख्या 77) अर्थात दूसरों को उपदेश देने वाले रावण जैसे लोग तो बहुत होते हैं । जो स्वयं आचरण करते हैं, वे लोग कम होते हैं। वे दूसरों से संसार को नाशवान बताते हैं लेकिन स्वयं पराई स्त्री पर कुदृष्टि डालने से नहीं चूकते। धन और सत्ता का घमंड करते हैं। अतीत में प्राप्त हुई शक्तियों के मिथ्या अभिमान में चूर रहते हैं। उन्हें अपने शुभचिंतकों की सही सलाह भी बुरी लगती है। ऐसे व्यक्तियों के मुख से सत्य और वैराग्य की अच्छी बातें शोभा नहीं देतीं। वे स्वयं अपने उपदेश के अनुसार आचरण नहीं करते।रावण अभिमान के रथ पर सवार हो गया। संसार को संसार की नश्वरता का उपदेश देने वाला स्वयं लोभ और मोह में इतना आसक्त था कि उसे अपने सिर पर मंडराता हुआ काल भी नजर नहीं आया।
प्रभु राम हमारी वृत्ति को वास्तव में निरभिमानी बनाते हुए संसार की नश्वरता को सही मायने में हमारे भीतर प्रवेश कराने की कृपा करें, यही प्रभु से प्रार्थना है ।
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लेखक : रवि प्रकाश (प्रबंधक)
राजकली देवी शैक्षिक पुस्तकालय (टैगोर स्कूल), पीपल टोला, निकट मिस्टन गंज, रामपुर, उत्तर प्रदेश
मोबाइल 99976 15451