*संपूर्ण रामचरितमानस का पाठ : दैनिक रिपोर्ट*
संपूर्ण रामचरितमानस का पाठ : दैनिक रिपोर्ट
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दिनांक 28 अप्रैल 2023 शुक्रवार प्रातः 10:00 से 11:00 तक (रविवार अवकाश)
आज अयोध्या कांड दोहा संख्या 278 से दोहा संख्या 311 तक का पाठ हुआ।
कथा-सार
चित्रकूट में इस बात पर विचार चल रहा है कि अयोध्या के राजपद का क्या किया जाए? विचार-विमर्श में राम और भरत के साथ गुरुदेव वशिष्ठ और महाराज जनक भी चित्रकूट में उपस्थित हैं।
कथा-क्रम
एक ही दृश्य को देखकर सबकी प्रतिक्रिया अलग-अलग होती है। आज के कथा-प्रसंग में चित्रकूट में सीता जी को तपस्वी वेश में जब नगर वासियों ने देखा तो उनको भारी दुख हुआ। तुलसी लिखते हैं :-
तापस वेश जानकी देखी। भा सबु विकल विषाद विशेषी।। (चौपाई संख्या 285)
अर्थात तपस्वी के वेश में जानकी को देखकर सब विकल और विषादमय हो गए।
तत्काल पश्चात जब जनक सीता को देखते हैं तो उसी तपस्वी वेश में सीता को देखने के बाद भी उनकी प्रतिक्रिया आनंददायक होती है:-
तापस वेश जनक सिय देखी। भयउ प्रेम परितोष विशेषी।। (चौपाई संख्या 286)
प्रतिक्रिया का यह अंतर दृष्टि और दृष्टिकोण में अंतर होने के कारण आता है । जनक जी विदेह हैं। संसार की माया को जानते हैं। सत्य के साधक हैं। कर्तव्य-पथ कंटकाकीर्ण होता है, यह बात उन्हें पता है। माया से रहित होने की स्थिति अंततः सुखप्रद और जीवन का भला करने वाली होती है, यह बात केवल तत्वज्ञानी जनक ही जान सकते हैं। इसीलिए कर्तव्य के पथ पर संयम, सादगी और सांसारिक आकर्षण से मुक्त होकर सीता को गमन करते हुए देखकर उनके हृदय को आंतरिक प्रसन्नता होना स्वाभाविक है।
दूसरी ओर सामान्य जन केवल संसार के विषय-भोगों में फॅंसा रहता है। उसे सांसारिक वस्तुओं की तथा सुखभोग के साधनों की उपलब्धता में ही जीवन की सार्थकता नजर आती है। ऐसे में जब सीता जी राजसी सुख-वैभव से विमुख हो गई हैं, तब सामान्य नगर वासियों का दुखी होना उनके दृष्टिकोण से गलत नहीं कहा जा सकता। वास्तव में सामान्य व्यक्ति धन-संपत्ति और सांसारिक सुख की परिधि से बाहर सोच ही नहीं पाते। यह तुलसीदास जी की कलम का चमत्कार है कि बिना कोई टिप्पणी किए हुए एक तत्वज्ञानी और साधारण समाज की दृष्टि के मतभेद को अपनी लेखनी से उजागर कर देते हैं। तुलसी की लेखनी को सौ-सौ बार प्रणाम।
चित्रकूट में तपस्वी जीवनवृति का चरमोत्कर्ष हमें देखने को मिलता है। तपसी वह है जो तपस्या करने के लिए भीतर से हर समय तत्पर है। बाहरी वेश तपस्वी का हो या न हो, यह महत्व नहीं रखता । भगवान राम, लक्ष्मण, सीता, भरत और शत्रुघ्न इन सब का लालन-पालन अथवा यूं कहिए कि इनके भीतर जो तपस्वी का सद्गुण विद्यमान है, वह उचित समय आने पर चित्रकूट में सबको दिखाई दे रहा है । कोई अयोध्या का राजपद पाने के लिए तैयार नहीं है । उत्सुक होना तो बहुत दूर की बात है। केवल राम को ही वनगमन प्रिय नहीं है, यह सीता लक्ष्मण और भरत सबके हृदय की अभिलाषा है। भरत चाहते हैं कि वह वन चले जाएं और राम अयोध्या के राजा बन जाएं। राम चाहते हैं कि वह वन जाएं और भरत राजपद संभालें । इसी बात को लेकर मधुर संघर्ष छिड़ा हुआ है। संसार में सत्ता को पाने के लिए संघर्ष तो बहुतों ने बहुत बार देखे हैं लेकिन सत्ता को छोड़ने के लिए वाद-विवाद और संवाद तो केवल चित्रकूट में ही देखने को आ रहा है। ऐसा संवाद सुनकर और पढ़कर भला किसका हृदय तपस्वियों-सा न बन जाएगा ?
चित्रकूट में जो भी उपस्थित हैं, सब तत्वदर्शी हैं। कौशल्या जी तत्वज्ञान की बात सीता की माता सुनैना को इस प्रकार बता रही हैं:-
कठिन करम गति जान विधाता (चौपाई संख्या 281)
अर्थात कर्म की गति कठिन अर्थात गहन होती है। उसे केवल विधाता ही जानता है।
कौशल्या जी नीति की अच्छी बातें भी कहती हैं :-
कसें कनक मणि पारिखि पाऍं। पुरुष परिखिए समय सुभाएं।। (चौपाई संख्या 282)
अर्थात सोना तो कसौटी पर कसने के बाद और मणि जौहरी के पास जाने पर तत्काल पता चलती है लेकिन सज्जन व्यक्ति जब समय आता है तब ही परखे जाते हैं।
बार-बार कौशल्या जी भारत की प्रशंसा करती हैं । केवल कौशल्या जी ही क्यों, भला कौन है जो भरत की त्यागवृत्ति से मंत्रमुग्ध न हो गया हो । स्वयं राजा जनक अपनी पत्नी सुनयना से भरत के महान चरित्र की यशगाथा कह रहे हैं:-
सावधान सुनु सुमुखि सुलोचनि। भरत कथा भव बंध विमोचनि।। (चौपाई संख्या 287)
अर्थात सुनयना अथवा सुलोचनि अथवा सुमुखी! मेरी बात सावधान होकर सुनो ! भरत की यशकथा संसार के बंधनों से विमोचन अर्थात मुक्त करने वाली है।
भरत के चरित्र की प्रशंसा करते हुए जनक ने अपनी पत्नी सुनैना से एक और बात कही:-
परमारथ स्वारथ सुख सारे। भरत न सपनेहु मनहु निहारे।। (चौपाई संख्या 288)
अर्थात परमार्थ और स्वार्थ के सारे सुखों की ओर भरत ने सपने में भी नहीं निहारा है अर्थात वह केवल भगवान राम के ही भक्त हैं।
इसी बीच सामान्य नगर निवासियों का मन उल्टा-पुल्टा होने लगा है। वह कभी वन में रहना अच्छा समझते हैं, कभी घर को लौट जाना उन्हें प्रिय लगने लगता है। तुलसीदास जी ने ऐसे में भगवान राम ने मन ही मन जो बात कही, उसे उद्धृत कर दिया:-
सरस स्वान मघवान जुबानू (चौपाई संख्या 301)
इसमें मघवान अर्थात इंद्र, स्वान अर्थात श्वान अथवा कुत्ता और जुबानू अर्थात नवयुवक कामी पुरुष को एक ही कोटि में रखा गया है ।
चित्रकूट में भरत जी की उपस्थिति पूरी तरह चित्रकूट को भरतमय कर रही है। भगवान राम भी भरत की प्रशंसा करते हुए नहीं अघाते हैं :-
करम वचन मानस विमल, तुम्ह समान तुम्ह तात। (दोहा संख्या 304)
अर्थात मन वचन और कर्म से हे भरत! तुम्हारे सामान विमल तो केवल तुम ही हो सकते हो। तात्पर्य यह है कि हे भरत ! तुम अपनी उपमा आप ही हो । भला इससे बढ़कर भरत के चरित्र की प्रशंसा और किस प्रकार की जा सकती है ?
कथा-क्रम में भरत ने राम जी से पूछा कि आपके अभिषेक के लिए जो जल विभिन्न तीर्थों का लाया गया है, उसका क्या किया जाए ? तब अत्रि ऋषि के परामर्श से भगवान राम ने उस जल को एक कुएं में रखवा दिया । वह कुआं ‘भरतकूप’ कहलाया।
रामचरितमानस में तुलसीदास जी ने अनुप्रास अलंकार की अद्भुत छटा बिखेरी है । यह साधारण कवि के बस की बात नहीं है। चित्रकूट में जब पैदल भरत जी आदि चलने लगे, तब उस समय का वर्णन करते हुए तुलसी लिखते हैं :-
कुस कंटक कॉंकरी कुराईं। कटुक कठोर कुवस्तु दुराईं।। (चौपाई संख्या 310)
हनुमान प्रसाद पोद्दार जी ने चौपाई के उपरोक्त दो चरणों की व्याख्या इस प्रकार की है : कुश कांटे कंकड़ी दरारें आदि कड़वी कठोर और बुरी वस्तुओं को पृथ्वी ने छुपा दिया। अर्थात भरत जी के चलने के लिए मार्ग को मृदु बना दिया।
भरत की कथा का समावेश रामकथा की मुकुट मणि है । भरत भक्तों में महान भक्त हैं। सत्य के आराधक हैं। उनके समावेश से रामकथा की पावनता द्विगुणित हो गई है ।
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लेखक : रवि प्रकाश (प्रबंधक)
राजकली देवी शैक्षिक पुस्तकालय (टैगोर स्कूल), पीपल टोला, निकट मिस्टन गंज, रामपुर, उत्तर प्रदेश
मोबाइल 99976 15451