*संपूर्ण रामचरितमानस का पाठ/ दैनिक रिपोर्ट*
संपूर्ण रामचरितमानस का पाठ/ दैनिक रिपोर्ट
25 अप्रैल 2023 मंगलवार प्रातः 10:00 से 11:00 तक
आज अयोध्या कांड दोहा संख्या 153 से 191 दोहा संख्या तक का पाठ हुआ । मुख्य सहभागिता श्रीमती शशि गुप्ता जी की रही ।
कथा-सार
राम के वियोग में महाराज दशरथ ने प्राण त्याग दिए। तदुपरांत भरत को बुलाने के लिए ननिहाल में दूत भेजे गए । भरत ने लौटकर राजा दशरथ का सरयू के तट पर दाह संस्कार किया। उसके उपरांत राम को राजपद देने के लिए चित्रकूट की ओर चल दिए। जब श्रंगवेरपुर में निषाद ने देखा तो पहले तो उसे लगा कि भरत युद्ध करने के लिए आ रहे हैं, लेकिन फिर उसने संयत मन-मस्तिष्क से काम लिया।
कथा-क्रम
तुलसीदास जी विस्तार में न जाकर केवल एक चौपाई में श्रवण कुमार की कथा का स्मरण करते हैं। लिखते हैं :-
तापस अंध शाप सुधि आई। कौशल्यहि सब कथा सुनाई।।(दोहा वर्ग संख्या 154)
उपरोक्त चौपाई में केवल यह लिखा है कि महाराज दशरथ को अंधे तपस्वी के शाप की सुधि आई और उन्होंने कौशल्या को सारी कथा सुनाई। लेकिन विषय को स्पष्ट करते हुए हनुमान प्रसाद पोद्दार जी ने अपनी टीका में अंधे तपस्वी का तात्पर्य श्रवण कुमार के पिता लिखकर पाठकों को चौपाई का अर्थ स्पष्ट कर दिया। हनुमान प्रसाद पोद्दार जी का हृदय से धन्यवाद।
यहॉं यह बात विचारणीय है कि दुखी हृदय से निकला हुआ शाप कभी बेकार नहीं जाता। वह सर्प की भांति डॅंसता अवश्य है। श्रवण कुमार की कथा जग-विख्यात है । नदी में पानी भरने गए श्रवण कुमार को महाराज दशरथ के तीर ने जब मार डाला, तब दुखी होकर उसके माता-पिता ने दशरथ को श्राप दिया था कि जिस तरह हम आज अपने पुत्र के वियोग में तड़प-तड़प कर प्राण दे रहे हैं; उसी प्रकार एक दिन तुम भी इस वेदना को महसूस करोगे।
महाराज दशरथ की मृत्यु को तुलसीदास ने एक दोहे में इस प्रकार चित्रित किया है :-
राम राम कहि राम कहि, राम राम कहि राम । तनु परिहरि रघुवर विरह, राउ गयउ सुरधाम ।। (दोहा 155)
अर्थात तन को राम के वियोग में परिहरि अर्थात त्याग कर राउ अर्थात राजा सुरधाम को सिधार गए।
तत्पश्चात एक ओर तो मुनि वशिष्ठ ने भरत जी को ननिहाल से बुलाने के लिए दूत भेजे, वहीं दूसरी ओर भरत के लौटने तक शव को सुरक्षित रखने के लिए महाराज दशरथ के शरीर को एक नाव में तेल भरकर रखवा दिया।
तेल नाव भरि नृप तनु राखा। (सोरठा 156)
चातुर्य का परिचय देते हुए वशिष्ठ ने दूतों से कहा कि शीघ्र जाओ, लेकिन भरत को महाराज दशरथ की मृत्यु का समाचार मत देना। केवल यह कहना कि गुरु जी ने तुरंत बुलाया है।
तुलसीदास जी शकुन और अपशकुन पर रामचरितमानस में विशेष जोर देते हैं। इसी के अनुरूप उनका कथन है कि भरत को ननिहाल में रहते हुए अपशगुन रूपी भयानक सपने रात में आते रहते थे । तुलसी लिखते हैं :-
देखहिं राति भयानक सपना। (चौपाई 156)
यही अपशगुन जब भरत अयोध्या में प्रवेश करते हैं, तब भी उन्हें देखने को मिलते हैं। तुलसी लिखते हैं :-
खर सियार बोलहिं प्रतिकूला। (चौपाई 157)
हनुमान प्रसाद पोद्दार जी के अनुसार इसका अर्थ है कि गधे और सियार विपरीत बोल रहे हैं। एक अन्य स्थान पर तुलसीदास जी लिखते हैं :-
असगुन होंहि नगर पैठारा। रटहिं कुभॉंति कुखेत करारा।। (चौपाई 157)
इसका अर्थ हनुमान प्रसाद पोद्दार जी टीका में इस प्रकार लिखते हैं कि नगर में प्रवेश करने पर अपशगुन हो रहे हैं तथा कौवे बुरी जगह बैठकर बुरी तरह से कांव-कांव कर रहे हैं।
नगरवासी भरत जी से नमस्कार तो करते हैं लेकिन कुछ बात नहीं करते। दूसरी तरफ कैकई भरत के स्वागत के लिए आरती सजाकर महल के दरवाजे तक पहुंच गई। लेकिन जब उसने भरत को दोनों वरदानों के बारे में बताया, तब भरत ने कैकई को पापिनी कह कर संबोधित किया:-
पापिनि सबहि भॉंति कुल नासा।। (चौपाई 160)
अर्थात कुल का नाश करने वाली सब प्रकार से तू पापिनी है।
शत्रुघ्न तो इतने क्रोधित हो गए कि उन्होंने मंथरा को देखकर उसके कूबड़ पर लात ही मार दी। पता नहीं शत्रुघ्न जी मंथरा के साथ क्या सलूक करते, लेकिन भरत ने दया करके शत्रुघ्न जी को रोक दिया।
भरत जी के मन में अपनी माता कैकई के प्रति क्रोध भरा हुआ है। कौशल्या से मिलने के बाद वह कहते हैं:-
कैकइ कत जनमी जग माझा। जौं जनमि त भइ काहे न बॉंझा।। (चौपाई 163)
अर्थात कैकई ने इस संसार में जन्म ही क्यों लिया? और अगर जन्म ले भी लिया था तो फिर वह बांझ क्यों नहीं हुई? अर्थात अगर केकई बांझ होती, तब मेरा जन्म केकई के गर्भ से नहीं होता और मुझे यह कलंक झेलने का दुर्भाग्य प्राप्त नहीं होता ।
भरत पश्चाताप की आग में जल रहे हैं। लेकिन वाह री कौशल्या ! जिस भरत की माता के कारण सारा कुछ अनर्थ हुआ है, कैकई के मन में उन भरत के प्रति रत्ती भर भी कोई दूषित भावना नहीं है। तुलसीदास जी लिखते हैं कि सरल स्वभाव की माता कौशल्या ने भरत को अपने हृदय से लगा लिया। मानो राम फिर से लौट आए हों:-
सरल सुभाय मायॅं हयॅं लाए। अति हित मनहुॅं राम फिरि आए।। (चौपाई 164)
कौशल्या ने भरत को यह कहकर भी सांत्वना दी कि काल और कर्म की गति टाली नहीं जा पाती है, अतः शोक मत करो:-
काल करम गति अघटित जानी।। (चौपाई 164)
भरत का दुख शांत नहीं हो पा रहा था। उन्होंने कौशल्या से कहा कि कैकई के दो वरदान मांगने में मेरा कोई हाथ नहीं है। अगर मेरा रत्ती भर भी इस कार्य में हाथ पाया जाए तो मुझे वही पाप हो जो माता पिता पुत्र को मारने से, बालक और स्त्री की हत्या करने से, मित्र और राजा को जहर देने से, वेद और धर्म बेचने से, लोभी लंपट और लालची होने से, पराए धन और पराई स्त्री को ताकने से प्राप्त होता है। कौशल्या ने यह सब सुनकर भरत को गहरी सांत्वना दी और कहा कि तुम्हारे बारे में कोई ऐसा सपने में सोच भी नहीं सकता।
महाराज दशरथ का अंतिम संस्कार वेद के अनुसार शरीर को स्नान करा कर तथा विमान बनाकर सरयू के तट पर चिता बनाकर किया गया। तुलसी के अनुसार:-
कीन्ह भरत दशगात विधाना (चौपाई 169)
इसका अर्थ हनुमान प्रसाद पोद्दार ने अपनी टीका में इस प्रकार लिखा है :”भरत जी ने पिता का दशगात्र विधान (दस दिनों के कृत्य) किया।” यह भी उल्लेखनीय है कि दशगात्र विधान का विस्तार से वर्णन यहां नहीं मिलता।
तत्पश्चात अयोध्या में राजसभा आयोजित हुई। भरत के पश्चाताप से भरे हुए हृदय से सब परिचित हैं। अतः गुरु वशिष्ठ ने भरत को सांत्वना देते हुए समझाया कि शोक मत करो। जो भाग्य है, वह बहुत प्रबल होता है। वास्तव में हानि-लाभ, जीवन-मरण, यश और अपयश विधाता के हाथ में ही होता है । इस संबंध में तुलसीदास जी का यह प्रसिद्ध दोहा विशेष रुप से ध्यान देने योग्य है:-
हानि लाभ जीवन मरण यश अपयश विधि हाथ (दोहा 171)
गुरु वशिष्ठ भरत से कहते हैं कि पश्चाताप को छोड़कर राजकाज ग्रहण करो:-
करहु राजु परिहरहु गलानी (चौपाई 174)
कौशल्या ने भी भरत को गुरुदेव वशिष्ठ की आज्ञा का पालन करने की ही सलाह दी।
भरत का चरित्र अत्यंत निर्मल कोटि का है। वह शब्दों के जाल में फॅंसने के लिए तैयार नहीं हैं। पाप से अर्जित किया हुआ राज्य उन्हें स्वीकार नहीं है। उन्होंने दो टूक शब्दों में राजसभा से कहा कि मेरा हित तो सीता जी के पति अर्थात भगवान राम के सेवक बनने में ही था, जिसे मेरी माता की कुटिलता ने हर लिया है:-
हित हमार सियपति सेवकाई। सो हरि लीन्ह मातु कुटिलाई (चौपाई 177)
भरत ने कहा कि मेरा तो एकमात्र मत यही है कि आप लोग मुझे राम के पास जाने की आज्ञा दें। इस संसार में सिवाय राम और सीता को छोड़कर कोई भी यह नहीं कहेगा कि दो वरदान मांगने के पीछे मेरा हाथ नहीं था । भरत ने यह भी कहा कि उन्हें डर इस बात का नहीं है कि संसार उन्हें बुरा कहेगा। डर इस बात का है कि उनके कारण राम और सीता को दुख पहुंच रहा है। अतः अपना सुनिश्चित मत भरत ने राजसभा के सामने निवेदित कर दिया कि कल सुबह मैं सुनिश्चित रूप से भगवान राम के पास जाऊंगा और उन से विनती करूंगा कि वह अयोध्या वापस लौट आऍं।:-
प्रातकाल चलिहउॅं प्रभु पाहीं (चौपाई 182)
सबने भरत के निश्छल विचारों का अभिनंदन किया और कहा कि अब सब लोग अगले दिन सुबह चित्रकूट के लिए जाएंगे।
भरत के मन में राम को अयोध्या के राजपद पर बिठाने की दृढ़ प्रतिज्ञ योजना थी। इसलिए उन्होंने मंत्रियों से कहा कि राम के राजतिलक का सारा सामान साथ में लेकर चलो। वन में ही गुरुदेव वशिष्ठ राम का राजतिलक कर देंगे :-
कहेउ लेहु सबु तिलक समाजू। बनहि देव मुनि रामहि राजू ।।( चौपाई 186)
प्रारंभ में तो भरत यह सोच कर कि राम वन में पैदल चल रहे हैं, ऐसे में मुझे रथ पर बैठकर चित्रकूट जाना शोभा नहीं देता। अतः पैदल चलने लगे। लेकिन फिर कौशल्या जी ने भरत को समझाया कि यह रास्ता पैदल चलने के योग्य नहीं है। इसके अतिरिक्त जब तक तुम रथ पर नहीं बैठोगे, बाकी लोग भी तुम्हारे साथ पैदल ही चलेंगे, यह अच्छा नहीं रहेगा । तब कौशल्या के समझाने पर भरत ने रथ के ऊपर सवार होकर चलना स्वीकार किया । यह स्थिति ऊॅंचे दर्जे के त्यागमय जीवन और मनोवृति को दर्शाती है। भरत को राजपद का कोई लोभ नहीं था। वह एक संत और संन्यासी की भांति जीवन में सारे भौतिक आकर्षणों से ऊपर उठ चुके थे।
जब भरत सेना के साथ चित्रकूट की ओर चले और श्रृंगवेरपुर के पास पहुंचे तो निषादराज गुह ने सेना देखकर यह समझा कि भरत जी राम-लक्ष्मण को मारने के लिए आ रहे हैं । उसने अपने साथियों को एकत्र करके उन्हें युद्ध के लिए तैयार कर लिया लेकिन युद्ध छिड़ने से पहले ही छींक आ गई। तुलसीदास जी शकुन और अपशकुन का उल्लेख रामचरितमानस में स्थान-स्थान पर करते हैं ।उन्होंने लिखा है कि छींक जब बाएं ओर की आई, तब एक बूढ़े व्यक्ति ने उस शगुन पर विचार करके कहा कि शगुन कह रहा है कि भरत रामचंद्र जी को मनाने के लिए आ रहे हैं। लड़ने के लिए नहीं आ रहे हैं। इस पर निषादराज गुह ने बूढ़े व्यक्ति की बात का समर्थन किया और कहा कि जल्दबाजी में कोई कार्य करके विमूढ़ अर्थात मूर्ख लोगों को पछताना पड़ता है :-
सहसा करि पछिताहिं विमूढ़ा (चौपाई संख्या 191)
चाहे शगुन के आधार पर बॉंई ओर की छींक पर विचार किया गया हो अथवा बूढ़े व्यक्ति की सलाह काम आई हो या यों कहिए कि निषादराज गुह को सही समय पर सही बुद्धि आ गई और इस तरह राम के दो भक्त आपस में टकराते-टकराते रह गए। सोच विचार कर किसी व्यक्ति के बारे में अपनी धारणा बनानी चाहिए। अन्यथा भारी नुकसान होने की संभावना रहती है । हम प्रायः अपने शुभचिंतक और मित्र को अपना शत्रु समझ लेते हैं और इस क्रम में अपना बड़ा भारी नुकसान कर बैठते हैं। रामचरितमानस स्थान-स्थान पर हमें जीवन जीने की सुंदर कला बताती है और समझ-बूझ के साथ जीवन पथ पर अग्रसर होने की शिक्षा देती है । यदि हम रामचरितमानस के प्रसंगों की गहराई में जाकर उनकी उपादेयता को हृदय में धारण करें, तो अपने जीवन को अवश्य ही धन्य कर सकते हैं।
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लेखक : रवि प्रकाश (प्रबंधक)
राजकली देवी शैक्षिक पुस्तकालय (टैगोर स्कूल), पीपल टोला, निकट मिस्टन गंज, रामपुर, उत्तर प्रदेश
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