*संपूर्ण रामचरितमानस का पाठ/ दैनिक रिपोर्ट*
संपूर्ण रामचरितमानस का पाठ/ दैनिक रिपोर्ट
21 अप्रैल 2023 शुक्रवार प्रातः 10:00 से 11:00 तक (रविवार अवकाश)
—————————————-
आज अयोध्याकांड दोहा संख्या 85 से दोहा संख्या 120 तक का पाठ हुआ। प्रमुखता से श्रीमती शशि गुप्ता की सहभागिता रही। श्रीमती मंजुल रानी भी उपस्थित रहीं।
कथा-सार
——————
आज की कथा में भगवान राम सर्वप्रथम श्रृंगवेरपुर गंगा तट पर पहुंचे। निषादराज गुह से मिले। तदुपरांत राम के बहुत समझाने पर मंत्री सुमंत्र अपना रथ लेकर वापस लौट गए। फिर गंगा के तट पर केवट से भेंट हुई। तदुपरांत प्रयागराज में मुनि भरद्वाज के आश्रम में आए। फिर वन के लिए आगे बढ़ गए। मार्ग में बहुत से गांव पड़ते गए।
कथा-क्रम
——————-
अगर कोई पूछे कि अब तक की रामचरितमानस में सबसे सार्थक पंक्ति कौन सी है, तो मैं निश्चित रूप से दोहा संख्या 94 वर्ग की निम्नलिखित पंक्ति को उद्धृत करूंगा :-
धरमु न दूसर सत्य समाना
अर्थात सत्य के समान कोई दूसरा धर्म नहीं है अथवा यह भी कह सकते हैं कि सत्य से बढ़कर कोई दूसरा धर्म नहीं होता। यह उपदेश स्वयं भगवान राम के श्रीमुख से तुलसीदास ने रामचरितमानस में कहलवाया है। अतः इसकी सार्थकता में रत्ती भर भी संदेह नहीं है। धर्म की बहुत सी व्याख्या समय-समय पर बहुत से व्यक्तियों ने की है, लेकिन “धरमु न दूसर सत्य समाना” -इससे बढ़कर धर्म की कोई परिभाषा नहीं हो सकती। यह शब्द भगवान राम ने उस समय कहे, जब बार-बार समझाने पर भी सुमंत्र अयोध्या के लिए नहीं लौट रहे थे तथा यह जिद लगाए हुए थे कि महाराज दशरथ ने उन्हें अपने साथ वन में थोड़ा-बहुत घुमा कर आने के बाद अयोध्या ले आने के लिए कहा है। राम ने सुमंत्र को बताया कि सत्य का पालन ही संसार में सर्वोपरि होता है। सत्य अर्थात धर्म के लिए ही राजा हरिश्चंद्र आदि ने सारे कष्ट सहे हैं । मैं सत्य का पालन करके उस धर्म का ही पालन कर रहा हूं। बहुत समझाने के बाद सुमंत्र वापस लौट सके।
रामचरितमानस का यह ध्येय वाक्य कि धरमु न दूसर सत्य समाना बहुत महत्वपूर्ण हो जाता है। जीवन में सत्य को साध लेने पर धर्म का पालन सरल हो जाता है। मन, वचन और कर्म से जीवन में सत्यता का आश्रय लेना ही धार्मिक जीवन व्यतीत करना माना जाना चाहिए। सत्य के मार्ग पर चलने से धर्म के पथ पर चलना सरल हो जाता है। सत्य का अर्थ बिना किसी घुमाव- फिराव के सीधा-सच्चा मार्ग अपनाना होता है। इसमें किसी प्रकार के छल-कपट को आश्रय नहीं मिल पाता। इसमें चतुराई का कोई स्थान नहीं होता। जो जैसा है, अपने को वैसा ही प्रकट कर देता है। भीतर और बाहर की पारदर्शिता को पूर्ण रुप से अपनाना ही सत्य के मार्ग पर चलना है। कुछ छुपाते ही हम सत्य के मार्ग से हट जाते हैं। अपने और पराए का भेद आते ही सत्य का भाव विस्मृत हो जाता है। सत्य को प्रदर्शित करने के लिए किसी वाक्-चातुर्य की आवश्यकता नहीं होती। सत्य सब काल में, सब देशों में और सब मनुष्यों के मध्य एक-सा ही रहता है। वास्तव में सत्य की मूल प्रवृत्ति यही है कि वह एक ही होता है। सत्य दो नहीं होते। दूसरी ओर असत्य के न जाने कितने रूप-रंग गढ़ लिए जाते हैं। जो हर देश, काल, परिस्थिति में एक है; वह सत्य अर्थात धर्म है। जिसको अपने-अपने स्वार्थ के लिए लोग देश, काल, परिस्थिति को ध्यान में रखते हुए गढ़ लेते हैं, वह सत्य अर्थात धर्म नहीं हो सकता ।
जब थिओसोफिकल सोसाइटी की संस्थापिका मैडम ब्लेवेट्स्की बनारस में काशी नरेश के राजमहल गईं, तो उन्होंने वहां के प्रवेश द्वार पर “सत्यान्नास्ति परो धर्म:” लिखा हुआ देखा। इसका अर्थ था कि सत्य से बढ़कर कोई धर्म नहीं होता। मैडम ब्लेवेट्स्की को इस वाक्य ने प्रभावित किया और उन्होंने इसे थियोसॉफिकल सोसायटी के प्रतीक चिन्ह में ध्येय वाक्य के रूप में शामिल कर लिया। तब से अब तक सत्यान्नास्ति परो धर्म: अर्थात सत्य से बढ़कर कोई धर्म नहीं होता अथवा देयर इज नो रिलिजन हायर दैन ट्रुथ मैडम ब्लेवेट्स्की की थिओसोफिकल सोसाइटी के प्रतीक चिन्ह का अभिन्न अंग है।
युधिष्ठिर को धर्मराज कहते थे क्योंकि उन्होंने सत्य का पालन करने का व्रत लिया हुआ था । उनके बारे में प्रसिद्ध था कि वह कभी भी झूठ नहीं बोलते थे। केवल सत्य बोलने की प्रवृत्ति ने युधिष्ठिर को धर्मराज बना दिया। इसका कारण यही था कि सत्य ही धर्म है और धर्म ही सत्य है। अपने दिन-प्रतिदिन के जीवन में हम सत्य बोलने की प्रतिज्ञा करके सब प्रकार से धर्म के अनुकूल आचरण सहजता से ही कर सकते हैं। जो सत्य का पालन करता है उसके मुख पर सत्य का तेज सहज ही देखा जा सकता है।
गंगा नदी भारत का प्राण है। जब रामचंद्र जी अयोध्या से चलकर श्रंगवेरपुर पहुंचे तो वहां उन्होंने गंगा जी को देखकर प्रणाम किया। उसकी महिमा को लक्ष्मण, सीता जी और सुमंत्र जी को सुनाया। गंगा में स्नान किया, जिससे सारी थकान मिट गई। गंगा-स्नान की इस अलौकिकता को तुलसीदास इन शब्दों में लिखते हैं :-
मज्जनु कीन्ह पंथ श्रम गयऊ। शुचि जल पियत मुदित मन भयऊ।। (दोहा 86)
हनुमान प्रसाद पोद्दार जी चौपाई की टीका इन शब्दों में लिखते हैं : “इसके बाद सब ने स्नान किया, जिससे मार्ग का सारा श्रम (थकावट) दूर हो गया और पवित्र जल पीते ही मन प्रसन्न हो गया।”
श्रृंगवेरपुर में निषादराज गुह ने भगवान राम का स्वागत और सत्कार किया तथा साथ ही उनसे कहा कि आप कृपा करके मेरे इस श्रंगवेरपुर में ही पधारने का कष्ट करें। जिस पर राम ने अत्यंत तर्क संगत उत्तर निषादराज गुह को दिया । रामचंद्र जी ने कहा:-
बरस चारि दस बासु बन, मुनि व्रत बेषु अहारु। ग्राम बासु नहिं उचित सुनि, गुहहि भयउ दुख भारु।। (दोहा संख्या 88)
अर्थात राम ने कहा कि मुझे तो वन में ही बसने की आज्ञा मिली है । मैं गांव के भीतर नहीं रह सकता। यहां उल्लेखनीय बात यह है कि राम अक्षरश: सत्य का पालन करने के लिए कटिबद्ध हैं। वह चाहते तो नगर से बाहर निकल कर किसी बेहतर स्थान पर कस्बा अथवा गांव में चौदह वर्ष के लिए निवास करके प्रतिज्ञा के पालन का जैसे-तैसे निर्वहन करना दिखा सकते थे । लेकिन सत्य का अक्षरश: पालन करना चाहिए, राम को तो यह धर्म मनुष्य जाति को सिखाना था। अतः वह गांव को छोड़कर वन की ओर जाने वाले कठिन मार्गों की ओर निरंतर चलते रहे। सत्य के प्रति राम की यह गहरी आस्था न केवल प्रणाम के योग्य है, अपितु जीवन में धारण करने के योग्य भी है।
सदुपदेश देने का कार्य रामचरितमानस में अपनी लेखनी से तुलसीदास जी निरंतर कर रहे हैं। एक स्थान पर लक्ष्मण जी ने निषादराज को इस संसार रूपी माया की वास्तविकता को निम्न शब्दों में समझाने का अत्यंत सार्थक प्रयास किया है :-
सपनें होइ भिखारि नृपु, रंकु नाकपति होइ। जागें लाभु न हानि कछु, तिमि प्रपंच जियॅं जोइ।। (दोहा 92)
अर्थात सपने में कोई राजा भिखारी बन जाए अथवा भिखारी राजा बन जाए; इसमें कुछ नफा-नुकसान नहीं है । ऐसे ही इस संसार में जो चक्र चल रहा है, उसे स्वप्न की भांति ही देखना चाहिए। अर्थात राम का नाम ही एक मात्र सत्य है, इसे हृदय में बैठा लेना चाहिए।
तुलसीदास जी लिखते हैं:-
करत चरित धरि मनुज तन, सुनत मिटहिं जग जाल।। (दोहा 93)
अर्थात भगवान राम मनुष्य का तन धारण करके जो चरित अर्थात लीलाएं करते हैं, उसके सुनने से ही जग के जंजाल मिट जाते हैं। तात्पर्य यह है कि भगवान राम ने जो मनुष्य का शरीर धारण किया तथा उसके माध्यम से जो राग, द्वेष, लोभ व मोह से परे रहकर जीवन बिताने का जो आदर्श उपस्थित किया; उन पद चिन्हों पर चलने से ही व्यक्ति जगत से पार पा सकता है।
संसार में सबको कार्य करने पर मजदूरी मिलती है लेकिन केवट जैसा भाग्य भला किसने पाया होगा। उसने भगवान राम को अपनी नाव से नदी के पार तक तो उतार दिया लेकिन पहला काम तो बड़ी चतुराई से भगवान राम के पैरों को धोने का पुण्य प्राप्त करके कर लिया। तदुपरांत उसने कहा कि छोटी-मोटी मजबूरी मैं क्या लूंगा। मुझे तो आज बहुत बड़ी मजदूरी मिल गई है। भगवान राम केवट को सीता जी की अंगूठी मजदूरी के रूप में देना चाहते हैं, लेकिन केवट ने लेने से मना कर दिया। केवट ने कुछ नहीं लिया। जो कुछ नहीं चाहता, उसे भगवान की विमल भक्ति का वरदान प्राप्त हो जाता है। केवट को यही अनमोल वस्तु प्राप्त हुई। तुलसीदास लिखते हैं:-
बहुत कीन्ह प्रभु लखन सिय, नहिं कछु केवटु लेइ। विदा कीन्ह करुणायतन, भगति विमल वरू देइ।। (दोहा 102)
प्रयागराज पहुंचकर भरद्वाज मुनि से भगवान राम का मिलन हुआ, जिसमें भरद्वाज मुनि ने जीवन में छल को छोड़कर निश्छल वृत्ति अपनाने की आवश्यकता पर बल दिया। भरद्वाज मुनि कहते हैं:-
करम वचन मन छाड़ि छलु, जब लगि जनु न तुम्हार। तब लगि सुख सपनेहूं नहीं, किऍं कोटि उपचार।। (दोहा संख्या 107)
राम लक्ष्मण और सीता वन के लिए जाते समय जिन गांवों से निकलकर चलते थे, उन गांवों के स्त्री और पुरुष उन्हें देखकर जहां एक ओर सुख की प्राप्ति करते थे क्योंकि उन्हें प्रभु श्री राम के दर्शन हो रहे थे; वहीं दूसरी ओर यह सोच कर दुखी भी हो जाते थे कि यह कैसा विधाता है जिसने इन्हें महलों के स्थान पर वन की ओर भेज दिया है।
भगवान राम, सीता और लक्ष्मण सत्य की साधना के लिए वन की ओर गए हैं। यह सत्य ही जीवन में सर्वोपरि है। रामचरितमानस के माध्यम से तुलसीदास जी जीवन में सत्य रूपी धर्म को साधने का ही संदेश देते हैं।
—————————————
लेखक : रवि प्रकाश (प्रबंधक)
राजकली देवी शैक्षिक पुस्तकालय (टैगोर स्कूल), पीपल टोला, निकट मिस्टन गंज, रामपुर, उत्तर प्रदेश
मोबाइल 99976 15451