संतुष्टि और आनंद
सन्तुष्टि का अर्थ क्या है ?
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हम सारा जीवन उन चीजों का पीछा करते रहते हैं जिन्हें हम चाहते हैं, लेकिन हमारे पास नहीं हैं – जैसे बहुत सा धन, शक्ति, सुख और आनंद इत्यादि।
देखा जाए तो जिन लोगों के पास खाने और रहने के लिए भी पर्याप्त साधन नहीं हैं – उनका दुखी होना तो स्वाभाविक है
लेकिन जिनके पास सब कुछ है और ज़रुरत से ज्यादा है – वे भी कोई बहुत सुखी और प्रसन्न दिखाई नहीं देते।
तो क्या सुख एवं आनंद महज एक भ्रम है? केवल एक काल्पनिक अवधारणा है?
यह इस बात पर निर्भर करता है कि हम सुख या
आनंद किसे कहते हैं।
अगर आनंद का अर्थ उन सब चीजों को प्राप्त करना है जो हम चाहते हैं या जो हमारे पास नहीं हैं, तो हम कभी भी पूर्ण आनंद को प्राप्त नहीं कर सकते। क्योंकि हर बार जब हमारी कोई इच्छा पूरी हो जाती है तो एक और नई इच्छा जन्म ले लेती है।
जब जब हमें वो वस्तु या पोजीशन मिल जाती है जिसे हम चाहते थे, तो कुछ और नया या उस से कुछ बेहतर प्राप्त करने की इच्छा पैदा हो जाती है और जीवन में कभी भी ऐसा समय नहीं आता जब ऐसा लगे कि अब हमें और किसी वस्तु की ज़रुरत नहीं है – अब और कुछ नहीं चाहिए।
इसलिए, पुराने बुज़ुर्ग एवं संत महात्मा संतोष की बात करते हैं – जो कुछ भी हमारे पास है, उसी में संतुष्ट रहने के लिए प्रेरणा देते हैं।
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