श्रृंगार के दोहे
(1)
रूपसि तेरे रूप से , दर्पण भी शर्माए ।
किरणों के आवेग से, कहीं चटक न जाए ??
(2)
सुंदर का श्रृंगार जब , सुंदरता से होय ।
हर कोई तब दृश्य के , आगे – पीछे होय ।।
(3)
लट उलझी सुलझाई तो, मन में उठती हूक ।
सुखद मिलन संयोग में , हो न जाए चूक ।।
(4)
गुलदश्ता शर्मा गया, किया सखिन श्रृंगार ।
मन में अपने सोचता , होता यदि मैं हार ।।
(5)
सखियाँ भी श्रृंगार में , मग्न हुईं यूँ आज ।
जैसे तीनों लोक का, मिला है इनको राज ।।
—- ईश्वर दयाल गोस्वामी ।