*श्री सुंदरलाल जी ( लघु महाकाव्य)*
श्री सुंदरलाल जी (लघु महाकाव्य)
अध्याय 1
जीवन का आरंभ
दोहा
आओ गाऍं वह चरित, कर दे मन निष्काम।
अनासक्त जिनका हृदय, सौ-सौ उन्हें प्रणाम।।
धरा धन्य उनसे हुई, जिनके मन अभिराम।
सर्वोत्तम वह ही मनुज, परहित सेवाधाम।।
महापुरुष दुर्लभ नमन, निर्मल मन भंडार।
जिनका जीवन प्रेरणा, सद्भावों का सार।।
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1)
धन्य-धन्य आत्मा महान जो इस धरती पर आई
धन्य-धन्य मन की निर्मलता जिसके कारण छाई
2)
सुंदर लाल महान सादगी के भंडार भरे थे
नगर रामपुर में जन्मे खेले थे हुए बड़े थे
3)
ईश्वर की वाणी थीं उनमें ईश्वर का सच आया
ईश्वर का आनंद अपरिमित अंतरतम में पाया
4)
ईश कृपा मिलती है जिसको सदा सुखी रहता है
तृप्ति-भाव संतोष हृदय में राम-राम कहता है
5)
दिव्य-भाव संतोषी जीवन सुंदर लाल बिताते
छोटी पूॅंजी सुख साधन में ब्रह्मानंद मनाते
6)
छोटी-सी उनकी दुकान थी छोटा उनका घर था
बड़ा हृदय था मोल हृदय का ही सबसे ऊपर था
7)
जब विवाह का क्षण आया घर में खुशियॉं लहराईं
नव दंपति नव मधुर भाव में डूबे खुशियॉं छाईं
8)
किंतु तभी आ गया काल नव परिणीता को डॅंसने
कुछ वर्षों का समय मिला बस केवल गाने-हॅंसने
9)
हुए विधुर तो जीवन में पूरा वैराग्य समाया
समझ गए नश्वर है जग में सब कुछ कंचन-काया
10)
चिंतन-मनन सदा करते हरि ही जग की सच्चाई
सिर्फ नाम ओंकार एक ने अविनाशी गति पाई
11)
कभी नहीं मरता है वह जो ईश्वर से मिल जाता
नहीं काल खाता है उसको जो ईश्वर को पाता
12)
ईश्वर बोलो कहॉं रह रहा ईश्वर किसने पाया
जो है जग से अनासक्त जिसमें नि:स्वार्थ समाया
13)
जो अपने में मगन, नहीं मन की चंचलता पाई
वही पुरुष है श्रेष्ठ, कामना जिसको नहीं सताई
14)
हरि की इच्छा जान ब्रह्ममय जीवन सदा बिताते
जीवन में संतुष्ट भाव से आगे बढ़ते जाते
15)
उधर देखिए काल-गाल में छोटा भाई आया
एकमात्र छोटे भाई को क्रूर काल ने खाया
16)
विधवा एक गिंदौड़ी देवी और रुक्मिणी बच्ची
टूट पड़ा दुख का पहाड़ गाथा यह कड़वी सच्ची
17)
देखा अपना दुख जब सुंदरलाल कभी रोते थे
कभी दुखी भाभी-बच्चों को देख-देख होते थे
18)
अरे ! भतीजी यह मेरी कब मुझसे जुदा रहेगी
यह है मेरी वंशवृक्ष ताऊ यह मुझे कहेगी
19)
परमेश्वरी दास कूॅंचा या कूॅंचा लाल बिहारी
मुख्य सड़क से जुड़ा मोहल्ला हलचल रहती भारी
20)
बिना पिता की पुत्री को पुत्री की तरह निभाया
नहीं भतीजी समझा, पुत्री ही समझा-समझाया
21)
वैराग्य-मूर्ति थीं भाभी जीवन के सारे सुख त्यागे
विधवा जीवन श्वेत वस्त्र तप संयम पीछे-आगे
22)
कभी नहीं कुछ चाह गिंदौड़ी देवी को भाई थी
बेटी के हित जीवन की दी सारी तरुणाई थी
23)
मोटा खाना और पहनना उनको बस भाता था
इच्छा रहित बिताना जीवन सही तरह आता था
24)
वह घर था वैराग्य-धाम तपसी की तरह निखरता
जहॉं कामना-रहित भाव श्वासों में नित्य विचरता
25
कर्मयोग या बंधन मानो या कर्तव्य निभाते
सुंदर लाल गिंदौड़ी देवी रोज-रोज दोहराते
26
उनके जीवन का मकसद था ब्रह्म भाव में रहना
उनके जीवन की दिनचर्या कभी न कड़वा कहना
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दोहा
घर में रहकर पा रहा, सद्गृहस्थ भगवान ।
मर्यादा में जो रहा, रहा बिना अभिमान ।।
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