श्रीमद्भागवत महापुराणम्
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चतुर्थः स्कन्धः अथ सप्तमोऽध्यायः
(दक्ष यज्ञ की पूर्ति) (भाग 2)
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मैत्रेय उवाच
क्षमाप्यैवं स मीढ्वां से ब्रह्मणा चानुमन्त्रितः ।
कर्म सन्तानयामास सोपाध्यायत्व्विंगादिभि: ॥ १६
वैष्णवं यज्ञसन्त्यै त्रिकपालं द्विजोत्तमाः ।। पुरोडाशं निरवपन् वीरसंसर्गशुद्धये ॥ १७
अध्वर्युणाऽऽ्तहविषा यजमानो विशाम्यते ।
धिया विशुद्धया दध्यौ तथा प्रादुरभूद्धरिः ॥ १८
तदा स्वप्रभया तेषां द्योतयन्त्या दिशो दश।
मुष्णंस्तेज उपानीतस्ताक्ष्येण स्तोत्रवाजिना ।॥ १९
श्यामो हिरण्यरशनोऽर्ककिरीटजुष्टो नीलालकभ्रमरमण्डितकुण्डलास्यः कम्बूब्जचक्रशरचापगदासिचर्म- व्यग्रैर्हिण्मयभुजैरिव कर्णिकारः ॥ २०
वक्षस्यधिश्रितवधूर्वनमाल्युदार-
हासावलोककलया रमयंश्च विश्वम् । पार्श्वभ्रमद्व्यजनचामरराजहंसः श्वेतातपत्रशशिनोपरि रज्यमानः ॥ २१
तमुपागतमालक्ष्य सर्वे सुरगणादयः । प्रणेमुः सहसोत्थाय ब्रह्मेन्द्रव्यक्षनायकाः ॥ २२
तत्तेजसा हतरुचः सन्नजिह्वाः ससाध्वसाः ।
मूध््ा धृताञ्जलिपुटा उपतस्थुरधोक्षजम् ।। २३
अप्यर्वाग्वृत्तयो यस्य महि त्वात्मभुवादयः । यथामति गृणन्ति स्म कृतानुग्रहविग्रहम् ॥ २४
दक्षो गृहीता्हणसादनोत्तमं
यज्ञेश्वरं विश्वसृजां परं गुरुम् ।
सुनन्दनन्दाद्यनुगैर्वृतं मुदा
गृणन् प्रपेदे प्रयतः कृताञ्जलिः ॥ २५
दक्ष उवाच
शुद्धं स्वधाम्युपरताखिलबुद्ध्यवस्थं चिन्मात्रमेकमभयं प्रतिषिध्य मायाम् । तिष्ठंस्तयैव पुरुषत्वमुपेत्य तस्या मास्ते भवानपरिशुद्ध इवात्पतन्त्र: ॥ २६
ऋत्विज ऊचुः
तत्त्वं न ते वयमनञ्जन रुद्रशापात् कर्मण्यवग्रहधियो भगवन्विदामः ।
धर्मोपलक्षणमिदं त्रिवृदध्वराख्यं
ज्ञातं यदर्थमधिदैवमदोव्यवस्थाः ॥ २७
सदस्या ऊचुः
उत्पत्त्यध्वन्यशरण उरुक्लेशदुर्गेऽन्तकोग्र- व्यालान्विष्टे विषयमृगतृष्यात्मगेहोरुभारः । द्वन्द्वश्वभ्रे खलमृगभये शोकदावेऽज्ञसार्थः
पादौकस्ते शरणद कदा याति कामोपसृष्टः ॥२८
रुद्र उवाच
तव वरद वराङ्घ्रावाशिषेहारिलार्थे
ह्यपि मुनिभिरसक्तैरादरेणार्हणीये ।
यदि रचितधियं माविद्यलोकोऽपविद्धं
जपति न गणये तत्त्वत्परानुग्रहेण ॥ २९
भृगुरुवाच
यन्मायया गहनयापहृतात्मबोधा
ब्रह्मादयस्तनुभृतस्तमसि स्वपन्तः ।
नात्मन् श्रितं तव विदन्त्यधुनापि तत्त्वं
सोऽयं प्रसीदतु भवान् प्रणतात्मबन्धुः ॥ ३०
श्लोकार्थ
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श्रीमैत्रेयजी कहते हैं-आशुतोष शङ्कर से इस प्रकार अपना अपराध क्षमा कराकर दक्षने ब्रह्माजी के कहने पर उपाध्याय. ऋत्विज आदि की सहायता से यज्ञकार्य आरम्भ किया ॥ १६ ॥
तब ब्राह्मणों ने यज्ञ सम्पन्न करने के उद्देश्य से रुद्रगण-सम्बन्धी भूत-पिशाचों के संसर्गजनित दोष की शान्ति के लिये तीन पात्रों में विष्णुभगवान के लिये तैयार किये हुए पुरोडाश नामक चरु का हवन किया ।। १७ ।।
विदुरजी ! उस हवि को हाथ में लेकर खड़े हुए अध्वर्यु के साथ यजमान दक्ष ने ज्यों ही विशुद्ध चित से श्रीहरि का ध्यान किया, त्यो ही सहसा भगवान् वहाँ प्रकट हो गये १८ ॥
‘बृहत् एवं ‘रथन्तर’ नामक साम-स्तोत्र जिनके पंख हैं, उन गरुडजी के द्वारा समीप लाये हुए भगवान ने दसों दिशाओं को प्रकाशित करती हुई अपनी अङ्गकान्ति से सब देवताओं का तेज हर लिया-उनके सामने सबकी कान्ति फीकी पड़ गयी ॥ १९ ॥
उनका श्याम वर्ण था, कमर में सुवर्ण की करधनी तथा पीताम्बर सुशोभित थे। सिरपर सूर्य के समान देदीप्यमान मुकुट था, मुखकमल भौरों के समान नीली अलकावली और कान्तिमय कुण्डलों से शोभायमान था, उनके सुवर्णमय आभूषणों से विभूषित आठ भुजाएँ थीं, जो भक्तों की रक्षा के लिये सदा उद्यत रहती हैं। आठों भुजाओं में वे शङ्ख पद्म, चक्र, बाण, धनुष, गदा, खड्ग और ढाल लिये हुए थे तथा इन सब आयुधों के कारण वे फूले हुए कनेर के वृक्ष के समान जान पड़ते थे।॥ २० ।
प्रभु के हृदय में श्रीवत्स का चिह्न था और सुन्दर वनमाला सुशोभित थी वे अपने उदार हास और लीलामय कटाक्ष से सारे संसार को आनन्दमन कर रहे थे। पार्षदगण दोनों ओर राजहंस के समान सफेद पंखे और चैवर हुला रहे थे। भगवान् के मस्तक पर चन्द्रमा के समान शुभ्र छत्र शोभा दे रहा था ।। २१ ॥
भगवान् पधारे हैं-यह देखकर इन्द्र, ब्रह्मा और महादेवजी आदि देवेश्वरोसहित समस्त देवता, गन्धर्व और ऋषि आदि ने सहसा खड़े होकर उन्हें प्रणाम किया॥ २२ ॥
उनके तेज से सबकी कान्ति फीकी पड़ गयी, जिह्वा लड़खड़ाने लगी, वे सब-के सब सकपका गये और मस्तक पर अञ्जलि बाँधकर भगवान के सामने खड़े हो गये।। २३ ॥
यद्यपि भगवान की महिमा तक ब्रह्मा आदि की मति भी नहीं पहुँच पाती, तो भी भक्तों पर कृपा करने के लिये दिव्यरूप में प्रकट हुए श्रीहरि की वे अपनी-अपनी बुद्धि के अनुसार स्तुति करने लगे॥ २४ ॥
सबसे पहले प्रजापति दक्ष एक उत्तम पात्र में पूजाकी सामग्री ले नन्द-सुनन्दादि पार्षदों से घिरे हुए, प्रजापतियों कि परम गुरु भगवान् यज्ञेश्वर के पास गये और अति आनन्दित हो विनीतभाव से हाथ जोड़कर प्रार्थना करते प्रभु के शरणापन्न हुए॥ २५ ॥
दक्षने कहा- भगवन् ! अपने स्वरूप में आप बुद्धि की जाग्रदादि सम्पूर्ण अवस्थाओ से रहित, शुद्ध, चिन्मय, भेदरहित, अतएव निर्भय हैं। आप माया का तिरस्कार करके स्वतन्त्ररूप से विराजमान हैं; तथापि जब माया से ही जीवभाव को स्वीकारकर उसी माया में स्थित हो जाते हैं, तब अज्ञानी से दीखने लगते हैं। २६ ।।
ऋत्विजों ने कहा-उपाधिरहित प्रभो ! भगवान् रुद्र के प्रधान अनुचर नन्दीश्वर के शाप के कारण हमारी बुद्धि केवल कर्मकाण्ड में ही फंसी हुई है, अतएव हम आपके तत्त्व को नहीं जानते । जिसके लिये ‘इस कर्म का यही देवता है’ ऐसी व्यवस्था की गयी है-उस धर्मप्रवृत्ति के प्रयोजक, वेदत्रयी से प्रतिपादित यज्ञ को ही हम आपका स्वरूप समझते हैं।॥ २७ ॥
सदस्यों ने कहा-जीवों को आश्रय देने वाले प्रभो ! जो अनेक प्रकार के क्लेशों के कारण अत्यन्त दुर्गम है, जिसमें कालरूप भयङ्कर सर्प ताक में बैठा हुआ है, द्वन्द्रूप अनेकों गढ़े हैं, दुर्जनरूप जंगली जीवों का भय है तथा शोकरूप दावानल धधक रहा है— ऐसे, विश्राम-स्थल से रहित संसारमार्ग में जो अज्ञानी जीव कामनाओं से पीड़ित होकर विषयरूप मृगतृष्णा जल के लिये ही देह-गेह का भारी बोझा सिर पर लिये जा रहे हैं. वे भला आपके चरणकमलों की शरण में कब आने लगे ।। २८ ॥
रुद्र ने कहा-वरदायक प्रभो ! आपके उत्तम चरण इस संसार में सकाम पुरुषों को सम्पूर्ण पुरुषार्थो की प्राप्ति कराने वाले हैं, और जिन्हें किसी भी वस्तु की कामना नहीं है, वे निष्काम मुनिजन भी उनका आदरपूर्वक पूजन करते हैं। उनमें चित्त लगा रहने के कारण यदि अज्ञानी लोग मुझे आचार भ्रष्ट कहते हैं, वे कहे, आपके परम अनुग्रह से मैं उनके कहने-सुनने का कोई विचार नहीं करता ॥ २९॥
भृगुजी ने कहा-आपकी गहन माया से आत्मज्ञान लुप्त हो जाने के कारण जो अज्ञान-निद्रा में सोये हुए हैं, वे ब्रह्मादि देहधारी आत्मज्ञान में उपयोगी आपके तत्त्व को अभी तक नहीं जान सके। ऐसे होने पर भी आप अपने शरणागत भक्तों के तो आत्मा और सुहृद् हैं, अतः आप मुझपर प्रसन्न होइये ।। ३० ॥
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