श्रीकृष्ण का गीता उपदेश
श्रीकृष्ण का गीता उपदेश
महाभारत के रण में, था घोर अंधकार,
कौरव-पांडव की सेना, खड़ी थी ललकार।
अर्जुन के मन में था संशय का भंवर,
धर्म-अधर्म की राह में खो गया था उसका सफर।
धनुर्धारी अर्जुन ने छोड़ी गांडीव की कमान,
जब देखा अपनों को, युद्ध में विरुद्ध खड़ा सारा जहान।
कांप उठा उसका मन, छलक आई आँखें,
कैसे करूँ मैं युद्ध, जहां हैं मेरे अपने, मेरी साँसें।
तभी गीता का संदेशा लेकर, श्रीकृष्ण प्रकट हुए,
अर्जुन के सारथी बन, उसकी शंका का निवारण किए।
कहा, “हे पार्थ, यह शरीर नाशवान है, आत्मा अमर,
यह युद्ध धर्म का है, अधर्म का करो अंत, हो विजयी हर।
न मोह, न माया, न संबंधों का बंधन,
धर्म के पथ पर चल, छोड़ दे यह संशय का आवरण।
यह शरीर क्षणिक है, आत्मा है अजर-अमर,
कर्म कर, फल की चिंता न कर, यही है जीवन का अमृत मंत्र।
अर्जुन ने सुना यह दिव्य ज्ञान, खुल गए मन के द्वार,
कृष्ण के शब्दों में छिपा, जीवन का था सार।
धर्म का पालन करना, यही है योद्धा का धर्म,
अधर्म का संहार करना, यही है कर्म का मर्म।
कृष्ण ने कहा, “जो कुछ भी हो रहा है, वह स्वभाव के अनुसार,
तू केवल साधन है, परिणाम का नहीं तुझसे कुछ सार।
माया के बंधन से मुक्त हो, अपने कर्तव्य को निभा,
जीवन में केवल कर्म का ही तू पालन कर, यही है साधना।
यह गीता का ज्ञान, नहीं है केवल युद्ध का उपदेश,
यह जीवन की राह दिखाता, है जीवन का सच्चा प्रवेश।
जो भी इस ज्ञान को समझे, वही पाता है मोक्ष का द्वार,
धर्म की राह पर चलकर, पा लेता है जीवन का उद्धार।
अर्जुन ने त्यागा मोह, उठाया फिर गांडीव,
श्रीकृष्ण के ज्ञान से, बन गया वह रणधीर।
धर्म की रक्षा के लिए, किया अधर्म का संघार,
गीता के उपदेश से, पाया उसने जीवन का आधार।
श्रीकृष्ण का यह दिव्य ज्ञान, हर युग में अमर रहेगा,
जो भी करेगा स्मरण इसका, उसका जीवन सदा सजेगा।
गीता का यह संदेश, है हर जीवन का सार,
धर्म की राह पर चलो, यही है कृष्ण का उपहार।
यह कविता महाभारत के युद्ध में श्रीकृष्ण द्वारा अर्जुन को दिए गए गीता के उपदेश पर आधारित है। इसमें श्रीकृष्ण के दिव्य ज्ञान और अर्जुन के संशय के निवारण का वर्णन किया गया है। इसे स्कूल में बोलने के लिए आप इसे उपयोग कर सकते हैं।