‘श्रमशील’
श्रम कर सब जग,
बन जाता विकसित।
बलशाली रहे तन,
रक्षित जीवन।।
सुन जग कर्म क्षेत्र,
मत भूल खोल नेत्र।
मुरझाए बिन श्रम,
स्व मुख-बदन।।
ओढ़ श्रम निद्रा तज,
ले ललाट रज सज।
नित कर सुकाज तू,
कर्मवीर बन।।
रख विचार उन्मुक्त,
छवि रहे ओज युक्त।
चल पथ परहित,
आनंद मगन।।
स्व रचित
गोदाम्बरी नेगी