श्रद्धेय डॉ. राधाकृष्णन
राजनीति में रहकर भी जिनका जीवन साधुमय रहता है, वह राजर्षि कहलाता है । राजर्षि विश्वामित्र की ऋषि परंपरा में राधाकृष्ण के युगलरूप श्रद्धेय राधाकृष्णन का नाम महान राजर्षि के रूप में लिया जाता है, जो भारत के प्रथम उपराष्ट्रपति और द्वितीय राष्ट्रपति थे।
महान संत किसी काल देश या स्थान के नहीं होते हैं, बल्कि उनकी छवि विश्वस्तर पर होती है। अंग्रेजी का सितंबर माह आचार्य विनोबा भावे के। जन्म कोई लेकर प्रसिद्ध तो है ही, डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने भी इसी माह की 5वीं तारीख को सन 1888 ई. में मद्रास (अब चेन्नई) के तिरुथानी नामक जगह में एक निर्धन परिवार में जन्मग्रहण किया। तिरुथानी में ही महान संत मधुस्वामी दीक्षितार ने अपने भक्ति-गीतों की रचना की थी।
डॉ. राधाकृष्णन के जीवन के हर क्षण में संत व्यक्तित्व की विलक्षण प्रतिभा का साम्राज्य दृष्टिगोचर होता है । धर्म और संस्कृति के समन्वय पर ही उन्होंने अनेक मौलिक ग्रंथों की रचना की- ‘हमारी संस्कृति’ और ‘हमारी विरासत’ के कारण वे एक महान दार्शनिक एवं एक महान मानवतावादी कहलाये । हिन्दू धर्म के प्रति उनकी आस्था स्वामी विवेकानंद से कम नहीं थी । राधाकृष्णन के विचार एक वेदांत से कम नहीं माना जाता है।
विचार के साथ-साथ इनका आचार भी ठोस था । उन्होंने बाइबिल के न्यू टेस्टामेंट के उपदेशों पर सफल रूप से अधिकार प्राप्त कर लिया था । यही कारण हैं, पं. मदन मोहन मालवीय जी इनके सुसंस्कृत संत-जीवन से प्रभावित थे । ‘दि फिलोसोफी ऑफ रवीन्द्रनाथ’ जैसी पुस्तक भी इनकी ख्याति के कारण बने । डॉ. राधाकृष्णन विश्व पर्यटक थे । इनकी यात्राएं धर्म और संस्कृति को लेकर अंतरराष्ट्रीय क्षेत्र तथा विश्व के संत-समाज में भारत का सम्मान बढ़ाने के लिए थी।
स्तालिन या स्टालिन से भेंट ! स्तालिन रूस के ऐसे व्यक्ति थे, जो धर्म और आध्यात्मिकता से परे भौतिकवाद पर विश्वास करते थे, लेकिन दूसरी मुलाकात में जब डॉ. राधाकृष्णन ने उनसे कहा-
“भारत में एक ऐसे राजा हुए, जिसने बहुत समय तक रक्तपात किया, लेकिन एक दिन उसने अनुभव किया कि हिंसा मानव जाति पर कलंक है । इसलिए उसने हिंसा का मार्ग त्याग दिया और प्रेम, अहिंसा, शांति की नीति अपना ली।” इस बात पर स्तालिन चुप रहे। शायद उन्हें रह-रहकर याद आती होगी, बुद्ध के उस वचन का यानी ‘वैर का अंत, वैर से नहीं होता !’