शोख- चंचल-सी हवा
गीतिका छंदसृजन
मापनी-2122 2122 2122 212
शोख- चंचल-सी हवा ये छेड़ जाती है मुझे।
है बड़ी बदमाश-सी कितनी सताती है मुझे।
अंग से ऐसे लिपट जाती बदन को चूमती।
बावली मुझको बनाती मस्त मौला झूमती।
प्यार से भींगी हवा बौछार बनकर छू रही,
ले चलूँ तुम को कहाँ नादान दिल से पूछती।
जानती -पहचानती ऐसे जताती है मुझे।
शोख- चंचल-सी हवा ये छेड़ जाती है मुझे।
खींचती आँचल कभीउलझा रही है बाल को।
काँपते से होठ छूकर चूमती है गाल को।
और सीने से लगाकर साँस में घुलने लगी,
नर्म कोमल हाथ से सहला रही है भाल को।
खोल बाँहे प्रेम की मदिरा पिलाती है मुझे।
शोख चंचल-सी हवा ये छेड़ जाती है मुझे।
हाय! यूँ झकझोरती मुझको जगाती रात में।
संग महकी-सी कई यादे दिये सौगात में।
चीरती है सर -सराहट दग्ध करती वक्ष को
दर्द कितना भर गईं मेरे सभी जज्बात में।
सप्त सुर संगीत से मदहोश करती है मुझे।
शोख चंचल-सी हवा ये छेड़ जाती है मुझे।
– लक्ष्मी सिंह
नई दिल्ली