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3 Jul 2023 · 10 min read

#शेष चमत्कार

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★ #शेष चमत्कार ★

प्रिय पाठकगण, आपको उन महाशिल्पी का स्मरण तो अवश्य होगा जिनका मात्र अंगूठा देखते हुए ज्योतिषी ने जब सत्य उद्घाटित किया कि “जहाँ आपका विवाह हुआ वहाँ छह कन्याएं थीं और जहाँ आपके पिता का विवाह हुआ वहाँ भी छह कन्याएं थीं”, तब घोर नास्तिक महाशिल्पी ध्रुवनैष्ठिक आस्तिक हो गए। आइए, आज उनकी शेष कथा कहते हैं।

जब शीत ऋतु की चुभन अपने चरम पर होती है तब ऊनी वस्त्रों का निर्माणकार्य थम जाता है। उन दिनों का सदुपयोग कई शिल्पीजन और उद्यमी देशाटन अथवा तीर्थाटन के लिए किया करते हैं।

ऐसे समय में भी महाशिल्पियों की व्यस्तता बनी रहती है। हमारी कथा के नायक महाशिल्पी जिनका नाम मनीष सतीश अथवा हरीश जैसा कुछ था, वे भी नियमित रूप से नौकरी पर जा रहे थे कि एक दिन उनके उद्यमस्वामी पन्ना सेठ उनसे बोले, “महाशिल्पी, आपको देशाटन का अवसर दे रहा हूँ। देश के कई नगरों-महानगरों में उगाही रुकी हुई है, वो लेते आइए।”

महाशिल्पी के सहमति देने पर पन्ना सेठ ने उन्हें सूची थमा दी कि किस-किस नगर में कौन-कौनसे व्यापारी से कितनी-कितनी उगाही शेष है। सूची में विशेष रूप से एक नगर जो कि संभवतया बेंगलुरु था, वहाँ के एक व्यापारी को चिह्नित किया गया था। पन्ना सेठ ने बताया कि “यह व्यक्ति बहुत नीच प्रकृति का है। इसका नाम-दुकान जितना ऊंचा है, व्यापार में यह उतना ही खोटा और असत्यवादी है। दूर प्रदेशों के व्यापारियों को लूटने में अति प्रवीण है यह दुष्टात्मा। समय मिले तो इसके यहाँ चले जाना, नहीं समय मिले तो छोड़ देना क्योंकि यह व्यक्ति किसी भी दशा में पैसे तो देगा नहीं।”

और, महाशिल्पी चल दिए देशाटन को अथवा शेष चमत्कार से साक्षात्कार को।

अंगुष्ठज्योतिषी के चमत्कार के उपरांत महाशिल्पी ज्योतिषशास्त्र के धुरअनुरागी हो गए थे। कहीं भी आते-जाते उनके हाथ में कोई न कोई ज्योतिषीय पत्रिका अथवा पुस्तक रहती। उस दिन भी जब रेलगाड़ी में उनका बिछौना नीचे खिड़की के साथ था, तब भी वे अधलेटे-से ऐसा ही कुछ पढ़ रहे थे कि ऊपरवाले बिछौने के युवा सहयात्री ने पूछा, “आप ज्योतिषी हैं?”, और उत्तर की प्रतीक्षा किए बिना ही आगे बोला, “मेरे लिए कुछ सुखद और भली भविष्यवाणी कीजिए।”

“जी नहीं। मैं ज्योतिषी नहीं हूँ।” महाशिल्पी ने संक्षिप्त उत्तर दिया और दृष्टि फिर से वहीं पूर्ववत टिका ली।

“आप ज्योतिष की पत्रिका पढ़ रहे हैं न, इसलिए मुझे ऐसा आभास हुआ।”

“मैं सीखने और समझने का प्रयास कर रहा हूँ।”

“यह भी अच्छा है। तब लाइए मैं आपका हाथ देखता हूँ”, कहते हुए वो युवक झटसे कूदकर नीचे आ गया।

महाशिल्पी की हस्तरेखाओं को पढ़ते हुए उसने बीत चुके समय की कुछ ऐसी घटनाओं की चर्चा की जिनके बारे में उनके अतिरिक्त अधिक लोग नहीं जानते थे। लेकिन, वे अत्यधिक प्रभावित नहीं हुए क्योंकि वे तो इससे बड़े चमत्कार देख चुके थे। तब उनकी उदासीनता को देखते हुए वो युवा ज्योतिषी इतना कहते हुए ऊपर अपने बिछौने पर जा लेटा कि “शीघ्र ही आपका अपना आवास बन जाएगा।”

एक दिन, जाने क्यों रेलगाड़ी एक छोटे-से रेलवेस्टेशन पर बहुत समय से रुकी हुई थी। अनेक यात्री गाड़ी से उतरकर प्लेटफार्म पर टहल रहे थे। हमारे महाशिल्पी भी एक चायवाले के ठेले के समीप जा खड़े हुए। तभी गेरुए वस्त्रों में सजा किशोरावस्था को लांघता युवावस्था को पहुंचता हुआ एक साधुसा दिखता व्यक्ति उनके समीप आकर बोला, ” बाबूजी, चाय पिला दीजिए, हम आपकी हस्तरेखा पढ़ देंगे।”

“तुम्हें चाय पीनी हो तो पी लो। मुझे हाथ नहीं दिखाना।”

“बाबूजी, मैं भिखारी नहीं हूँ”, यह कहते हुए जब वो चलने को तत्पर हुआ तो महाशिल्पी चौंके।

“ठीक है भाई, तुम चाय पी लो। बाद में हाथ देख लेना।”

एक हाथ में चाय का गिलास और दूसरे हाथ में महाशिल्पी के हाथ को उलट-पलटकर देखते हुए उन साधुपुरुष ने कुछ बातें बताने के बाद जो अंतिम बात कही वो यह थी कि “बाबूजी, आप जहाँ जा रहे हैं, वहाँ से आपको धन मिलेगा, जिससे आपका अपना घर बन जाएगा।” महाशिल्पी ने मुस्कुराते हुए चायवाले को पैसे दिए, गेरुआवस्त्रधारी पुरुष को नमस्कार किया और रेलगाड़ी में जा बैठे, जो चल पड़ी थी।

और एक दिन, महाशिल्पी बनारस में थे। नगरदर्शन करते हुए ऐसे मार्ग पर निकल आए जो लगभग जनशून्य था। उनके साथ दो परदेशी और थे जो कि वहीं ठहरे हुए थे जहाँ कि महाशिल्पी ठहरे थे। उस गली के मोड़ से वे दोनों दूसरी ओर मुड़ गए। महाशिल्पी थोड़ा और आगे बढ़े तो एक घर के बाहर जीर्णशीर्णपट्ट लगा था “ज्योतिष कार्यालय” का।

महाशिल्पी के भीतर बैठे जिज्ञासु ने उनके पांव वहीं थाम लिए। भीतर एक वृद्ध ब्राह्मण बैठे दीख रहे थे। महाशिल्पी आगे बढ़े। नमस्कार किया और बोले, “पंडित जी, मेरे बारे में कुछ बताएंगे?”

पंडित जी ने प्रश्नकुंडली बनाई। उनकी ओर देखा और बोले, “आप दूर देश से आए हैं।”

“दूर देश से नहीं पंडित जी, मैं इसी देश के एक प्रांत से आया हूँ।”

“मैंने यही कहा। जो आप समझ रहे हैं उसके लिए शब्द होता है ‘विदेश’, और मैंने आपसे कहा कि आप दूर देश से आए हैं”, किंचित रुककर वे फिर बोले, “आप जब इस नगर में पधारे तब सबसे पहले आप किसी जलाशय की ओर गए तदुपरांत किसी देवालय अथवा पूजास्थल की ओर गए।”

“पंडित जी, यह बनारस है। यहाँ आनेवाला प्रत्येक व्यक्ति पहले गंगास्नान को जाएगा जो कि जलाशय अर्थात नदी भी है और पूजा का स्थान भी है।”

“धर्मस्थान पर आने वाले सभी व्यक्ति धार्मिक नहीं होते”, पंडित जी की दृष्टि फिर प्रश्नकुंडली पर टिकी थी, “आप अपने ठिकाने से जब चले, तब आप तीन अथवा उससे अधिक जने थे। लेकिन, मेरे पास आप अकेले पहुंचे।”

“आपके द्वार से गली का छोर दिखता है। मेरे साथ दो व्यक्ति और थे जो वहाँ तक मेरे साथ आए।”

“मैं तो भीतर बैठा हूं। मेरे पास ऐसा कोई साधन नहीं है कि यहीं से गली के ओरछोर पर दृष्टि टिकाए रखूं।”

“पंडित जी, तब आप ऐसी सटीक निश्चित बात किस प्रकार कह रहे हैं?”

पंडित जी ने एक ग्रंथ उठाकर अपने समीप रख लिया और बोले, “इस प्रश्नकुंडली में जो-जो ग्रहयोग बन रहे हैं उनके आधार पर ऐसी अनेक बातें कही जा सकती हैं। मुझे जिस-जिस योग का स्मरण हुआ मैंने उनके आधार पर यह बातें कही हैं। आप कुंडली के योग और उनका फल जो यहाँ इस ग्रंथ में वर्णित हैं दोनों को स्वयं देखिए।”

महाशिल्पी को आभास हुआ कि अब तक उन्हें ऐसी कोई पुस्तक पढ़ने को नहीं मिली थी। उन्होंने उस ग्रंथ और ग्रंथकार का नाम व प्रकाशक का नामपता एक पर्ची पर लिखकर अपने पास सहेज लिया। और पंडित जी से विनती की, “पंडित जी, यह तो आज की बातें थीं कुछ कल के संबंध में बताइए?”

“आपका अपना घर नहीं है क्या?”

“जी नहीं।”

“बहुत शीघ्र आपका अपना सुंदर व भव्य आवास होगा। यह निश्चित है।” पंडित जी की वाणी में अब दृढ़ता के साथ-साथ कठोरता भी थी।

महाशिल्पी ने जेब से दस-दस के पाँच नोट निकालकर पंडित जी के चरणों में धरे और शीश नवाकर उनकी आशीष चाही। विद्वान ब्राह्मण को समुचित दक्षिणा के साथ सम्मान भी मिल रहा था, उन्होंने प्रसन्नचित होकर महाशिल्पी के सिर पर दोनों हाथ टिकाए और आशीर्वचन कहे।

और फिर एक दिन, जब सभी कार्य निपट चुके, जब महाशिल्पी को अब वापस अपने घर, लुधियाना लौटना था, तब उनके मन में आया कि उस दुष्टात्मा से भी मिल लिया जाए जिसके संबंध में पन्नासेठ ने कहा था कि “समय मिले तो मिल लेना। पैसे तो वो देगा नहीं”।

सूरज ढलने को था जब महाशिल्पी उस दुष्टात्मा के पास पहुंचे। अपना परिचय दिया। पन्नासेठ का पर्चा दिखाया और पैसों के लिए कहा तो वो बोला, “कल आना।”

महाशिल्पी की आशा के विपरीत जब उसने कल आने को बोल दिया तो वे कोई मधुर धुन गुनगुनाते हुए अपने ठिकाने को लौट आए।

अगले दिन जब वे पहुंचे तो वो छूटते ही बोला, “अरे, सुबह-सुबह धंधे के समय कौन मूर्ख पैसा मांगने आता है और कौन देता है। सांझ को आना।”

अब महाशिल्पी को इस बात की समझ आई कि यह व्यक्ति किस प्रकार दूर से आए व्यापारियों को मूर्ख बनाकर लूटा करता है। उन्होंने मन में ठान लिया कि इस तोते को पाठ पढ़ाकर ही घर को लौटना है। वे दुकान से नीचे उतरे और वहीं एक ओर खड़े हो गए।

जब उन्हें वहाँ खड़े हुए बहुत समय हो चुका तब किसी दुकान का एक कर्मचारी उनके पास आया, “क्या बात है भाई, बहुत समय से यहाँ खड़े हैं आप? कहाँ से आए हैं? किससे मिलना है?”

“मैं पंजाब से आया हूँ। यह जो दुकान है इनसे पैसा लेना है। कल आया तो बोले सुबह आना। अब कह रहे कि सांझ को आना। इसलिए यहाँ खड़ा हूँ। आपके बाजार की रौनक देख रहा हूँ। सांझ को पैसे लेकर चला जाऊंगा।”

“पैसा, इनसे? भाई, आज तक तो कोई न लेकर जा सका। आप लेकर गए तो मानेंगे कि हाँ, पंजाब से कोई आया था।”

धीरे-धीरे पूरे बाजार में बात फैल गई कि ऊंची दुकान वालों से कोई व्यक्ति पंजाब से आया है पैसा लेने जो कहता है कि पैसा लेकर ही जाएगा।

सांझ होने तक महाशिल्पी के पास एक-एक करके कई लोग आए और अपने-अपने ढंग से उन्हें उत्साहित करके गए। पन्नासेठ का कथन सत्य प्रतीत होने लगा कि वो व्यक्ति दुष्टात्मा है।

सांझ के समय जब वे दुकान की सीढ़ियां चढ़ रहे थे तभी वहाँ लोग इकट्ठा होने लगे। और जब उन्होंने पैसों का तगादा किया तभी वो बोला, “कल आना।”

“कल किस समय?”

“कल सुबह आना।”

“ठीक है सेठ, कल सुबह आता हूँ”, ऊंचे स्वर में बोलते हुए महाशिल्पी दुकान की सीढ़ियां उतर गए।

अगले दिन, फिर वही. . .कल आना।

तीसरे दिन, लगभग दो घंटे पूर्व बाजार खुल चुका था जब हमारे महाशिल्पी महोदय टहलते हुए बाजार में पधारे। कई दुकानदारों ने उन्हें रामराम कही। कईयों ने उनकी कुशलक्षेम की प्रार्थना की। किसी-किसी ने उन्हें लौट जाने को भी कहा। बहुतों ने बताया कि इस धूर्त व्यक्ति की राजनीतिक पहुंच बहुत ऊपर तक है, आपको जोखिम में नहीं पड़ना चाहिए। लेकिन, हमारे महाशिल्पी डीलडौल से ही पहलवान नहीं दिखते थे, समय आने पर दो-चार को धरती सुंघाने का बल और साहस भी था उनके पास।

और, जब वे ऊंची दुकान की सीढ़ियां चढ़े, और जबकि वे कुछ कहते, दुष्टात्मा बोला, “सांझ को आना।”

“ठीक है, सांझ को आता हूँ,” कहते हुए वे सीढ़ियां उतरकर एक ओर खड़े हो गए। धीरे-धीरे उनके आसपास लोग जुटने लगे। दूर-दूर के दुकानदार भी उचक-उचककर देखने लगे। लगभग एक घंटे के बाद, जब लोगों का जमघट ऊंची दुकान की सीढ़ियों तक पहुंचने लगा तब दुष्टात्मा ने उन्हें भीतर बुलाया।

महाशिल्पी जब दुष्टात्मा के सम्मुख पहुंचे तब तक दुकान के बाहर लोगों का जमघट लग चुका था।

“यहाँ क्यों खड़े हो?” क्रोधित दुष्टात्मा के स्वर में कंपन स्पष्ट दीख रहा था।

“आपने सांझ को बुलाया न।”

“यहाँ खड़ा नहीं होना”, अब स्वर में क्रोध के साथ चिल्लाहट और झल्लाहट भी थी।

“ठीक है, खड़ा नहीं होना। मैं साथवाली दुकान से कुर्सी लेकर बैठ जाता हूँ।”

उस दुष्टात्मा के हाथ में न जाने क्या वस्तु आई जो उसने महाशिल्पी के माथे पर दे मारी। रक्त की धारा फूट पड़ी। महाशिल्पी ने तुरंत उसे गले से पकड़कर बाहर को खींच लिया और दुकान से बाहर ले जाते हुए बोले, “चल, आज तुझे थाने की सैर करवाता हूँ।”

भीड़ रास्ता दिखा रही थी, महाशिल्पी उसे गले से पकड़कर खींचते हुए थाने पहुंच गए।

थानाध्यक्ष ने महाशिल्पी से कहा, “भाई, तुम्हारा रक्त बह रहा है, डॉक्टर से पट्टी करवा लो फिर तुम्हारी बात सुनते हैं।”

“पहले इस रक्त का दाम, फिर सेठ की उगाही, उसके बाद डॉक्टर।”

थानाध्यक्ष ने दुष्टात्मा को समझाया, “यह जो भीड़ इसके साथ यहाँ तक आई है, यह पंजाब से लेकर नहीं आया। यह सब तुम्हारे बाजार के लोग ही हैं, जो सब इसके साथ हैं। और जो व्यक्ति तीन दिन से यहाँ खड़ा है उसे तुच्छ समझोगे तो पछताओगे।”

बात दुष्टात्मा के भेजे में आ गई, “ठीक है, इसके सेठ का चार हजार मैं अभी देता हूँ।”

“पहले मेरे रक्त का दाम. . .उसके बाद सेठ की उगाही”, महाशिल्पी दहाड़े।

“हाँ ठीक है। सेठ, इसका अलग से पैसा दो”, थानाध्यक्ष बोला।

“मैं इसका एक सौ रुपया देता हूँ”, दुष्टात्मा रिरियाया।

“मेरा रक्त बह रहा है। तू हत्या के अपराध में फांसी चढ़ेगा दुष्टात्मा. . .पूरे पाँच हजार चाहिएं, एक पैसा न्यून नहीं।”

थानाध्यक्ष ने देखा कि भीड़ बढ़ती जा रही है। तब उसने दुष्टात्मा से कहा, “लोग बढ़ते जा रहे हैं और सब इसके पक्ष में हैं। मैं तुम्हारी कोई सहायता नहीं कर पाऊंगा।”

“ठीक है, पाँच हजार इसके भी देता हूँ।”

“सेठ के पैसों की पावती नहीं दूंगा। यह इसका दंड है। इसकी पावती लुधियाना से पन्ना सेठ भेजेंगे।”

महाशिल्पी ने पाँच हजार अपने, चार हजार पन्ना सेठ के और पाँच सौ रुपये डॉक्टर के लेकर, दुष्टात्मा को पाठ पढ़ाकर, वापसी की रेलगाड़ी पकड़ ली।

और उस दिन, पन्ना सेठ को उगाही का सब पैसा देने के बाद महाशिल्पी ने कहा, “इसमें चार हजार दुष्टात्मा का भी है। उसे पावती भेज देना। और, मेरा आज तक का जितना पैसा बनता है वो दे दीजिए, मुझे आपके यहाँ नौकरी नहीं करनी।”

“महाशिल्पी ऐसा क्यों?” पन्ना सेठ आश्चर्यचकित थे।

“मुझे किराये के घर में नहीं रहना। अपना घर बनाना है। आप तो इसके लिए पैसा दोगे नहीं। मैंने एक सेठ से बात की है वो मुझे पाँच हजार देने को सहमत हैं।”

“महाशिल्पी, पाँच हजार में घर तो बन जाएगा, चाहे जैसा भी बने। परंतु, इसके लिए भूमि?”

“शंकरपुरी में भूखंड ले लिया है मैंने।”

“कब?”

“मुझे वापस लौटे आज चौथा दिन है। नई नौकरी और आवास के लिए भूखंड लेने के बाद ही आज आपके पास आया हूँ।”

पन्ना सेठ के यह पूछने पर कि “भूखंड के लिए पैसा कहाँ से मिला?” महाशिल्पी ने सब वृत्तांत कह सुनाया।

“महाशिल्पी दूसरा सेठ आपको पाँच हजार देने की बात कहता है। मैं दस हजार अभी देता हूँ। और, यह जो चार हजार आप दुष्टात्मा से लेकर आए हो, यह भी दिये।”

हमारे महाशिल्पी का सुंदर-सा घर बन गया। एक बार फिर उनका चमत्कार से साक्षात्कार हुआ।

हरि ओ३म् !

#वेदप्रकाश लाम्बा
यमुनानगर (हरियाणा)
९४६६०१७३१२

Language: Hindi
64 Views
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