शेर
वफ़ा का दर्द ज़बाँ से बयाँ नहीं होता।
ये ऐसी आग है जिस का धुँआ नहीं होता।
बस एक दर्द सा महसूस होता रहता है।
नज़र की चोट का दिल पे निशाँ नहीं होता।
सफ़र ये हिज्र का कटता न जाने फिर कैसे।
तुम्हारी याद का गर सायबाँ नही होता।
हमीं ने खून से लिख्खि है दासतान ए चमन।
पर आज इस में ही अपना बयाँ नहीं होता।
मोहसिन आफ़ताब केलापुरी