शेर
टूटने लगी हैं सभी जंजीरे अब यूं भी,
परिंदों के पर काट कर भी क्या पाओगे।।।
सितारों को नहीं शौक है खुद पे इतराने का,
हौंसला देते हैं वो तो मुसाफिर को फिर सुबह के लौट आने का।।।
आसमां को भी गुमां था जिस चांद का,
वो भी तो देखो यूंही बड़ता कभी घटता गया।।।
अब के जो बिखरा तो संभलना और मुशकिल न हो जाए,
बहुत घाव अभी बाकि हैं जो मरहम से महरूम न रह जाएं।।।
अंत्तरवेदना को समझता नहीं अब कोई,
वक्त की व्यस्तता में गुम हो गए हैं कुछ अपनेपन के निशान।।।
कामनी गुप्ता ***