शेर शिवा
सबने देखा प्रतापगढ़ में, एक मुसाफिर आया था
नाम था उसका अफ़ज़ल खान, समझौता करने आया था
दोस्त नहीं था दुश्मन था वह, खंजर छुपाके लाया था
राजे की जान को हरने का, षणयंत्र बनाके आया था
पर मिलने जिससे आया था, भारत का जन्मा सिंह था
नाम शिवाजी था उसका, वह हिन्दू स्वराज का चिन्ह था
अफ़ज़ल ने ज्यों ही राजे को, आगे बढ़के गले लगाया
मित्रता का नक़ाब त्याग दिया, और असली रूप दिखलाया
अफ़ज़ल ने जकड़ा राजे को, और खंजर से पीछे वार हुआ
पर वीर कवच पीछे बांधे था, खंजर न उसके पार हुआ
अफ़ज़ल था एक लोमड़ जैसा, पीठ पे वार वह करता था
पर शिवा तो अपना शेर था बब्बर, आगे बढ़के लड़ता था
फिर चला वीर का वाघ नघ, अफ़ज़ल के पंजर खोल दिए
था बड़ा समझता ठग खुदको, मिटा उसके सब झोल दिए
अफ़ज़ल की योजना विफल हुई, शिकारी खुद शिकार हुआ
था बड़ा प्रतापी बीजापुर का, प्रतापगढ़ में आ लाचार हुआ
उस शूर वीर की याद में कविता, आज समर्पण करता हूँ
‘शेर शिवा’ के श्री चरणों में, अपना नमन मैं अर्पण करता हूँ