शीर्षक – “सहयात्री”(19)
सहयात्री
भोली सी सकुचाई सी
दो छोटे बच्चों को लिए साथ
जैसे ही वह रेल में चढ़ी,
वैसे ही हलचल मचाती
रेल स्टेशन से चल पड़ी,
अब वो अदब से करने लगी बात,
मुझे तो भाग्य से मिला सहयात्री का साथ,
बातों ही बातों में हो गई पहचान,
ढूंढने लगे हम एक-दूसरे की समस्या का समाधान,
अकेले ही कर रही थी वो सफर,
चेहरे पर न कोई शिकन और न था किसी डर का असर,
कुछ ही समय में बन गई वो हमसफर,
मनोबल था उसका इतना तेज,
जो देखते ही महसूस हो रहा था,
अदायगी रंग लाई सजा खूबसूरत परवेज़,
बेटी को बिठाया पास और गोद में बेटा सो रहा था,
कुछ सगे रिश्ते निभाकर भी बिखरकर टूट जाते,
कुछ अनजाने रिश्ते पल भर में भी करीब के बन जाते,
सफर चाहे रेल का हो या ज़िंदगी का वो तो यूँ ही चलता रहेगा,
यादों का समुंदर भी यादगार बनकर बहता रहेगा,
कुछ ही पलों में मेरे दिल की बात जान ली उसने,
लेखनी की धार पहचान ली उसने,
देखते ही देखते गंतव्य स्टेशन पर आखिर पहूँच ही गए,
दिलेर नाना-नानी उसे लिवाने आ ही गए,
कह गई मुझसे याद रखना सदा,
अपनी यादों को लेखनी से संजोते रहना यदाकदा,
ऐसा कहते-कहते हम सच्चे सहयात्री सदा के लिए बन गए ||
आरती अयाचित
स्वरचित एवं मौलिक
भोपाल