शीर्षक: बाबुल का आंगन
शीर्षक: बाबुल का आंगन
बहुत याद आती है मुझको सखी सहेली
बचपन की गलियां पुरानी
वह पेड़ों पर डाले गए झूले,
झूले पर खुशी से पींग बढ़ाती
बाबुल के आंगन में वह सखी सहेली।
लाला जी की वह दुकान
जिसमें मिलती थी टोफिया रंग बिरंगी
उसमें भी लड़कर लाल जी से करते थे
टोफिया के रंगों का चुनाव
बड़ी याद आती है
बाबुल के आंगन की वह हर बात ।
माॅं का रंग बिरंगी फ्रॉक के साथ रिबन का चुनाव
माॅं का परियों की तरह तैयार करना
लगाकर काजल का तिलक
माॅं हो जाती थी निहाल ।
छोटी सी डांट पर भी
माॅं सीने से लगा लेती थी
घंटे फिर जाने क्या-क्या समझती थी
कितने नाजो से पाला माॅं तूने मुझे
समझ गई हूॅं मैं अब माॅं बनने के बाद।
बाबुल का आंगन क्या छूटा
जैसे छूट गया घर परिवार
रह गया यादों में बाबुल के आंगन का एहसास ।
बहुत याद आता है माॅ बाबुल के आंगन
मैं बिताया हुआ बेपरवाही का राज।
हरमिंन्दर कौर
अमरोहा (उत्तर प्रदेश)