शिव कुमारी भाग ७
दादी को अपने पोते , पोतियों की अपेक्षा ज्यादा प्यारे थे। इस रूढ़िवादी विचारधारा से वो अछूती न रहीं।
खुद एक औरत होकर भी वो इस मानसिकता से निकल नहीं पायी। पर उनका ये विचार सिर्फ कहने तक सीमित रहा।
ये बात उनकी पोतियों को खलती जरूर थी पर दादी तो दादी ही थी। जैसी थीं , बिना लाग लपेट के, वैसी ही थीं।
भ्रूण हत्या या नवजात बालिका को नमक चटा देना, इन क्रूर प्रथाओं की वो भर्त्सना भी करती थी।
बस उन्हें पोते चाहिए थे जो उनके वंश को आगे बढ़ा सकें।
पोतियों का क्या, वे तो एक दिन शादी करके ससुराल चली जायेगी और शादी के लिए दहेज का इंतजाम करो , वो अलग एक बोझ था, खासकर गरीब और मध्यमवर्ग के लिए।
इतना ही नही, सामाजिक कुप्रथाओं के कारण जिंदगी भर का, विभिन्न अवसरों पर अनिवार्य शगुन के बहाने से कुछ न कुछ देना लगा ही रहता।
बेटे या पोते के ससुराल से कुछ आने से खुश भी बहुत होती और बेटी और पोतियों को अपने सामर्थ्यानुसार शगुन देने मे भी गुरेज नही था।
इस दोहरी मानसिकता की वो भी शिकार रहीं।
मजेदार बात ये है कि ये पक्षपात करते हुए भी, उन्हें पोतियों के ससुराल जाते वक्त रोते भी देखा था। रोते रोते उनके सुखद भविष्य का आशीर्वाद भी दिलखोल कर देती थी।
पोतियों मे भी उन्होंने कुछ को अपने दल मे मिला रखा था, जो उनकी बात मानती थी।
किसी एक कुंवारी पोती ने कुछ पलट के जवाब दे दिया तो फिर उनके मुँह से बददुआएँ भी यूँ निकलती थी।
“तेरी सासू न तो अभी स खोटा सुपना आरह्या होसी”
(तेरी सास को तो अभी से दुःस्वप्न आने शुरू हो गए होंगे”)
ये मेरी मझली दीदी को अक्सर सुनने मिलता था, क्योंकि वो सही बात बोलने मे हिचकिचाती नही थी।
एक गोरी व सुंदर पोती जब विदा हुई तो बकौल दादी-
“हीरो तो चल्योगो , खाली कुटलो रहग्यो”
(घर का हीरा तो चला गया, बस अब कूड़ा ही शेष बचा है)
उनकी बाकी पोतियों को कितनी तकलीफ हुई होगी?
पर दादी को ऐसे प्रमाणपत्र वितरण से कौन रोक सकता था भला।
किसी अपने या पड़ोसी के घर एक दो बेटियां होने पर,
मेरी वैज्ञानिक दादी उस नवजात की माँ के बारे मे ऐसा कहती-
“इक पेट म तो खाली छोरियां भरी पड़ी ह”
(इसके पेट मे तो खाली लड़कियाँ भरी पड़ी है)
बेचारे गुणसूत्र(chromosomes) भी सोचते होंगे कि दादी ने कहा है तो ठीक ही कहा होगा फिर!!
इस उलाहने मे दादी अकेली तो थी नहीं , ये समाज की बीमार सोच थी, जिसने देश की जनसंख्या बढ़ाने मे अहम भूमिका निभाई है।
मेरे एक जान पहचान वाले ने, पड़ोस की एक भाभी जी जिनकी चार पांच पुत्रियां ही थी, मजाक मे पूछ ही लिया, भाभी जी अब बस तो?
भाभी जी एक हार न मानने वाले योद्धा की तरह बोल पड़ी-
“जब तक सांस तब तक आस”
उन्होंने अपनी जिंदगी मे एक आध धार्मिक फ़िल्म ही देखी होंगी। उनको तो राम लीला या ब्रज की रासलीला वाले भाते थे। जिसको वो भक्ति भाव और चाव से देखती थी।
माँ और ताईजी ने तो उनके विचारों को बिना सवाल किए मान लिया था, पर पोतियाँ , पोते और उनकी बहुओं की इस नई पौध को कहाँ तक अपनी सोचों से राजी रख पाती।
नए जमाने की बदलती हवा के सामने खुद की शाखों को पेश करने मे एक आशंका तो थी ही, जो किताबें पढ़ कर अपनी भी एक राय बना चुकी थी।
लगभग अस्सी वर्षों से अपने खानदान की जड़ों को सींचा था, इसलिए इस उम्र मे मालिकाना हक छोड़ने की हिचकिचाहट स्वाभाविक भी थी।
यदा कदा, बेमन से उन्हें अब राजी भी होना पड़ता था।
एक दिन शाम को जब घर के बड़े घर लौटे तो घर मे सन्नाटा पसरा दिखा, दादी से जब पूछा तो उन्होंने कहा
सारे फ़िल्म देखने गए है, उसमे बाज़ारू औरतें नाचती हैं। ये टिप्पणी ज्यादा ही कड़ी थी, पर दादी का अपना नजरिया था।
चार किताबें पढ़ कर ,हम उनसे किस कदर बहस कर सकते थे।
पोते फ़िल्म देख आएं तो बात और होती,
“यो रामार्यो तो बिगड़ क बारा बाट होग्यो, मेर कह्या म कोनी
(ये मूर्ख तो पूरी तरह बिगड़ चुका है, मेरी बात अब नही मानता)
फिर घर मे आयी फ़िल्म पत्रिकाओं के पन्ने पलटते हुए, उनको कोई देख लेता, तो अपनी साड़ी मे छुपा लेती,
जरूर फिल्मी नायको और नायिकाओं पर एक एक करके अपनी गालियों से गरज बरस रही होंगी उस वक्त या एक कौतूहल होगा कि देखे तो सही कैसी दिखती है अर्धनग्न कपड़ो मे ताकि चेहरे को सोच कर कोसा जा सके।
वैसे दादी कभी कभी पोतियों के पक्ष मे भी खड़ी हो लेती थी,
एक बार खाते वक़्त मेरे चचेरे भाई ने , अपने से कुछ बड़ी, बहन को पापड़ सेंक लाने को कहा, लहजा शायद आदेश वाला होगा, बहन ने इंकार कर दिया। दोनों जिद पर अड़ गए।भाई खाना खाते हुए बीच मे उठ कर चला गया।
दादी अपनी प्यारी पोती के समर्थन मे खड़ी रही और पोते को खरी खोटी भी सुना डाली।
दादी बीच बीच मे सबको चौंका भी दिया करती थी। उनके मनमौजी दिल मे जो आ गया सो आ गया।
उनको मेरी बुआ से बहुत लगाव था, जब भी वो आती तो दादी बहुत खुश होती। बुआजी बहुत सीधी भी थी। दादी से बिल्कुल अलग।
जब बुआ छोटी थी तो एक बार उनको खांसी हुई थी, वो हर वक्त खाँसती रहती थी, एक बार ताऊजी ने उनको डांट दिया कि हर समय ध्वनि प्रदूषण फैलाती रहती है, बस फिर क्या था, दादी ने उनको इतनी बुरी तरह से डांट के घर के बाहर निकाला, कि बेचारे दो चार दिन सहमे सहमे से रहे।
दादी की गांव मे कई मुँहबोली बेटियां भी थी, जो वैधव्य का दुःख झेल रही थी। जीवन भर उन्होंने एक माँ की तरह उनको संभाला। हर सुख दुःख मे उनके साथ खड़ी रही।
दादी के चरित्र का ये विरोधाभास गहन जांच का विषय है।
एक वट वृक्ष की तरह सबको अपनी छांव मे रखना चाहती थी। बस उनकी खरी खोटी सुनकर दिमाग इस्तेमाल नही करना था।
जैसे कि उस दिन , जब चचेरे भाई को कह दिया , कि उनकी पोती पापड़ सेंक के नहीं लाएगी, जो करना है कर लो।
चचेरा भाई, जो मान बैठा था, कि इस जिद मे, दादी तो उसका साथ देगी ही, उनकी खरी खोटी सुनके वो बहुत आहत भी हुआ। ये अकल्पनीय था उसके लिये।
फिर उसकी कल्पना को एक सुखद झटका तब लगा जब दूसरे दिन चुपके से दादी ने एक चवन्नी थमाई , वो फुसफुसा कर कह रही थी, जाओ मोती हलवाई के पेड़े खा लेना।।।।