शिव कुमारी भाग ५
दादी की कुशल चिकित्सा और तीमारदारी से मेरे चेचक के दाने सूखने लगे थे। मेरे खाने पीने का पूरा ख्याल रखती थी , बीच बीच मे चौके मे जाकर पता नही कौन सा पेय बनाकर ले आती थी, जो मुझे झक मार के पीना ही पड़ता।
उन्होंने घर से निकलना तो मेरा बंद कर रखा था, ताकि ये बीमारी दुसरो मे न फैल जाए, इसलिए जल्दी ठीक होने की इच्छा मे, फिर मैं भी आनाकानी नही करता।
उनके पास सर्दी, खांसी,जुखाम, बुखार, सर दर्द, घाव, फुंसी, फोड़े, जलना, कटना, मोच, पेट दर्द आंख,कान , दांत और भी न जाने क्या क्या, का घरेलू कारगर इलाज उपलब्ध था।
बुखार मे खाने मे स्वाद न लगने पर ,नींबू को आग मे सेंक कर, उसमे काली मिर्च, सेंधा नमक मिलाकर झट एक टुकड़ा थमा देती,
तो कभी लौंग का पानी तैयार कर लाती।
कटने, छिलने और घाव मे उनका ” ज्ञामना फोहा” ( रुई मे हल्दी, सरसों तेल गरम करके उस जगह पर लगाना) न जाने कितनी बार लगाया होगा।
तो कभी किसी पत्ती को पीस कर लगा देना।
बेटे, बेटी ,बहुओं और दो दर्जन पोते पोतियाँ और पौत्र वधुओं की एक मात्र प्रमाणित घरेलू चिकित्सक मेरी दादी, पशुओं तक की भी डॉक्टर थी।
गर्भवती गाय को भी देख कर बतला देती थी कि उसको बच्चा कब तक होगा।
घर के अंदर एक कोने वाली कोठरी(कमरा) थी, जो हमारे घर का आधिकारिक प्रसूति गृह था। मुख्य चिकित्सक दादी और एक दाई की देखरेख मे लगभग सारे बच्चे उसी कमरे मे पैदा हुए।
जच्चा और बच्चे की देखभाल , मालिश और खाना पीना सब उनकी अनुभवी आंखों के आगे ही होता था।
बस दादाजी को उनसे अपना इलाज करते नही देखा, वो अपनी आयुर्वेदिक औषधियाँ एक वैध से ले आते थे, जिसको कूटने पीटने का जिम्मा दादी का होता था।
रात मे कुटी हुई हरड़े हल्के गर्म पानी या दूध मे उनको पिलाकर ही सोती।
दादाजी को थोड़ी कफ और वायु की समस्या थी और यदा कदा अधोवायु भी। दादी भी कभी कभी धड़ल्ले से डकार लेती थी।
इन प्राकृतिक चीजों पर न कभी नाक भौ सिकोड़ी, न शर्म महसूस की। इसे सहजता से लेना सिखाया।
बहुत वर्षों के बाद बड़ा होने पर ,मेरे एक दोस्त से ऐसे ही बेबाक बात चीत के दौरान,ये बात छिड़ी कि अंतरंग रिश्ते मे खुमार और और रूमानी होना तो अच्छी बात है ,पर रिश्ता टिकता है एक दूसरे को सहजता से लेने से ही।
नई नई दुल्हन आयी और खाना पीना कुछ भारी होने पर डकार निकल आयी या दूल्हे की अधोवायु निकल गयी। सारी खुमारी गायब हो गयी, ये कल्पना के परे था कि वो डकार भी ले सकती है। रुमानियत सच देखते ही भाग खड़ी होती है।
प्रेम सिर्फ रूमानियत नही है,इससे कहीं आगे है। रुमानियत को नकाब पहने रहने की आदत है, नकाब खिसकते ही होश भी आने लगता है,उसके बाद अगर चल सको तो फिर बात और है।
फिर कहीं पढ़ा था कि बेचारे “खर्राटे” ने तलाक भी करवा दी, दादी अखबार नही पढ़ती थी, अगर उन्हें ये बात पता चलती तो दोनों को इतनी गालियां देती कि अक्ल ठिकाने आ जाती।
दादी का किसी को भी गाली दे देना उनकी व्यक्तिगत स्वतंत्रता का हिस्सा नहीं, बल्कि उनका तो एक स्वतंत्र साम्राज्य था, जहां वो जो चाहे कह और कर सकती थीं।
दादाजी को सेव को उबाल कर उसके छिलके उतार कर खिलाते कई बार देखा। तो जाड़े मे नहाने से पहले धूप मे उनकी तेल मालिश वो खुद करती थी।
और जब कभी इन सब से निपट कर खाली बैठती तो नीम के तिनके को नाक मे घुसाकर खुद को छींक दिलवाना उनका शौक था। कभी पूछा नही कि ये भी उनकी किसी चिकित्सा का नुस्खा या सूत्र है क्या?
मैंने भी कई बार उनकी नकल करके इस तरह छींक छींक कर आनंद लिया था। एक दो बार देखा तो विशेषज्ञ वाली राय दी कि बस थोड़ा सा ही अंदर डालना ज्यादा नहीं।
अपने दांतों को भी हिला डुलाकर , बहला फुसलाकर वो खुद ही निकाल देती थी।
एक बार एक दांत जिद कर बैठा की वो डॉक्टर से ही निकलेगा तो दादी अपने प्रिय ऐलोपैथिक डॉक्टर हरि बाबू के पास रिक्शे मे गयी। उनको वो प्यार से हरिया कहती थी। हरि बाबू दादी को देखते ही धन्य हो गए कि आज उनकी माँ जी आयी है ,मुँह लगे कम्पाउण्डर ने तो आते ही पाँव छुए।
हरि बाबू ने वो जिद्दी दांत जब निकाला, तो दर्द के साथ गालियाँ भी निकली । दादी जब एक लाल सी दवा का कुल्ला करके थोड़ी संभली, तो बोल पड़ी, ” रामर्या, हरिया तू क्याहीं जोगा नही है( मूर्ख तुम किसी भी लायक नहीं हो।
डॉक्टर हंसता रहा और बोला ये लाल गोली और पीली गोली कब कब लेनी है। दवाओं का अंग्रेजी नाम बताकर वो उनके गुस्से को औऱ नही बढ़ाना चाहता था।
लौटते वक्त उस दांत को दादी ने पुड़िया मे लपेट लिया। मेरे साथ रिक्शे मैं बैठ कर ,अब खरी खोटी सुनने की बारी उस दांत की थी।
बाद मे पता चला, दादी के कुछ दांतो को इन डॉक्टर साहब ने पहले भी निकाला था।
घर मे जब किसी का मर्ज थोड़ा सोचनीय हो जाता तो फिर हरि बाबू को बुलाया जाता।
गायों की प्रसूति मे भी दादी पीढ़ा डालकर बैठी रहती। दादी उसमे कुछ करती नही थी। उसके सर पर बीच बीच मे हाथ फेर दिया या गर्दन सहला दी। दर्द मे तड़पती गायों के लिए इतना काफी था कि दादी पास बैठी है तो सब ठीक ही होगा।
जब बछड़ा निकल आता तो फिर उसको टीका लगा कर, छोटी छोटी घंटी उसके गले मे लटका कर, उसे भी घर के सदस्यों मे नामकरण करके शामिल कर लेती थी।
गाय का पहला पहला दूध जो थोड़ा पीले रंग का होता, उसे निकाल कर बछड़े को ही पिलाती। उन्हें उसमे विधमान पोषक तत्वों की बछड़े को पिलाने की जरूरत की भी चिंता थी।
छोटा बछड़ा भी अपनी दादी पाकर खुश हो कर उनके हाथों को चाट लेता और वो भी हमारी तरह सुनता, “खोटी घड़ी का यो के कर रयो ह?( खराब घड़ी मे जन्मे ये क्या कर रहे हो)
दादी की गालियों की खुराक की सबको जरूरत थी अपने मानसिक पोषण के लिए!!!
सुबह सुबह भंडार घर के तख्ते के एक पाए को पतली रस्सी से लपेटकर मिट्टी या धातु के कलश मे एक घोटनी डालकर दादी सागर मंथन की तरह दही बिलोने मे लगी दिख जाती , छाछ और मक्खन अलग होता रहता , कभी ज्यादा मेहरबान होती तो चम्मच या उंगली से थोड़ा मक्खन निकाल कर हमारी छोटी छोटी हथेलियों पर रख देती।
नहीं तो गालियों के प्रसाद से भी काम चल ही जाता!!
छाछ निकलते ही दादी और बच्चों का सुबह का नाश्ता भी तैयार हो जाता बस नमक या चीनी मिलाकर रोटियां डुबोने की देर थी।